लोगों की राय

ई-पुस्तकें >> परसाई के राजनीतिक व्यंग्य

परसाई के राजनीतिक व्यंग्य

हरिशंकर परसाई

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :296
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9709
आईएसबीएन :9781613014189

Like this Hindi book 10 पाठकों को प्रिय

194 पाठक हैं

राजनीतिक विषयों पर केंद्रित निबंध कभी-कभी तत्कालीन घटनाक्रम को ध्यान में रखते हुए अपने पाठ की माँग करते हैं लेकिन यदि ऐसा कर पाना संभव न हो तो भी परसाई की मर्मभेदी दृष्टि उनका वॉल्तेयरीय चुटीलापन इन्हें पढ़ा ले जाने का खुद में ही पर्याप्त कारण है।

बुद्धिमानों को शिकायत है कि टेलीविजन के विज्ञापन उपभोक्तावाद को बढ़ावा देते हैं। यह समस्या दुनिया भर में है। संपन्न देशों के लोग शिकायत नहीं करते। गरीब देशों के देशचिंतक हाय-हाय करते हैं। पर करें क्या? कारखाने हैं, चीजें बनती हैं चाहे वे अनावश्यक हों। कारखाने तो बिठाना नहीं है। तो जरूरत की भावना पैदा करना होगा। बार-बार दिखाने से आदमी सोचने लगेंगे कि इस चीज के बिना जीवित रहना संभव नहीं और इज्जत से जीने के लिए तो अनिवार्य ही है। 'विज्ञापन करो या नष्ट होओ' - यह मूलमंत्र है, स्वतंत्र उद्योग का। विज्ञापन वेश्या की तरह फुसलाते हैं। उपभोक्तावाद तो बढ़ेगा। और होगी प्रतिस्पर्धा-कंपीटीशन।

यह 'कंपीटीशन' भी मंत्र है स्वतंत्र उद्योग और व्यापार का। पैसा जीवन मूल्यों के केंद्र में हो गया है। उपभोक्ता माल खरीदने के लिए पैसा प्राप्त करने की तिकड़में भिड़ाता है। भ्रष्टाचार बढ़ता है। काला धन बढ़ता जाता है। अर्थशास्त्री बताते हैं कि इस समय चालीस हजार करोड़ रुपए है काला धन। यह बढ़ेगा। कल्याण ही कल्याण है। पर कल्याण को रोक नहीं है। मुझे कुछ सीरियल बहुत अच्छे लगते हैं। जटिल समस्याओं का बड़ा सरल हल दे देते हैं ये। पति-पत्नी के संबंध जटिल होते हैं। परिवार में संबंध जटिल होते हैं। इन संबंधों के बनने बिगड़ने के कारण आर्थिक, मनोवैज्ञानिक, यौन भावना संबंधी होते हैं। समाजशास्त्री, मनोविज्ञानशास्त्री इन पर विचार करते-करते सिर दुखाते हैं। मगर टेलीविजन इन समस्याओं का ऐसा सरल समाधान दे देते हैं कि हम चकित रह जाते हैं। सोचते हैं किस दुनिया के प्राणी हैं ये। सभी ऐसे क्यों नहीं हो जाते।

एक सीरियल बहुत पहले देखा था। एक निकम्मा पुरुष है। उसकी पत्नी है। नाम मुझे अभी तक याद है - दुलारी। ये लोग मकान का किराया तक पटा नहीं पाते। तभी चमत्कार हो जाता है। एक सरकारी आदमी उन्हें खोजता आता है। पति के फूफा मर गए हैं। वे अपनी सारी संपत्ति अपने भतीजे को नहीं, दुलारी को दे जाते हैं। संपत्ति में एक कारखाना भी है। दुलारी, जिसने जिंदगी में आटा की चक्की भी नहीं चलाई, किस कुशलता से वह कारखाना चलाती है। हर स्थिति के लिए दुलारी के दिमाग में फार्मूला है। मजे की बात यह है कि वह पूरी ईमानदारी से व्यवसाय करती है। अब आती है समस्या मजदूर-मालकिन संबंधों की। मजदूर संगठन माँगें रखता है। ये माँगे मुख्यत: आर्थिक होती हैं। दुलारी का काम बिल्कुल स्वच्छ है। वह मजदूर नेता को बुलाकर कहती है कि यह कारखाना मैं तुम लोगों को देती हूँ। तुम्हीं चलाओ। मजदूर कारखाना चलाने की कोशिश करते हैं। उनसे नहीं चलता। तो वे नारे लगाते हैं कि दुलारी देवी कारखाना वापस ले लो। हमसे नहीं चलता। तुम्हीं चलाओ। अब मालकिन मजदूर बहिन-भाई हो जाते हैं। यह जादूगरनी दुलारी 'पेरेस्त्रोइका' से आगे की है। अगर गोर्बाचेव इस सीरियल को देख लें तो उन्हें नए-नए विचार मिलें और रूस में 'पेरेस्त्रोइका' पूरी तरह सफल हो जाय।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

लोगों की राय

No reviews for this book