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परसाई के राजनीतिक व्यंग्य

हरिशंकर परसाई

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :296
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9709
आईएसबीएन :9781613014189

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राजनीतिक विषयों पर केंद्रित निबंध कभी-कभी तत्कालीन घटनाक्रम को ध्यान में रखते हुए अपने पाठ की माँग करते हैं लेकिन यदि ऐसा कर पाना संभव न हो तो भी परसाई की मर्मभेदी दृष्टि उनका वॉल्तेयरीय चुटीलापन इन्हें पढ़ा ले जाने का खुद में ही पर्याप्त कारण है।

एक वायलिन वादक है, जो चर्च में संगीत देता है। वह एक कमरे में किराए में रहता है। एक शाम वह चर्च से लौटता है तो उसे अपने कमरे के सामने मालिक मिल जाते हैं। वह उन्हें 'चाचा' कहता है। वह कहता है - कहिए चाचा क्या हाल है? मालिक एकदम भड़कते हैं। कहते हैं - क्या हाल है? तुमने तीन हफ्ते से चुकारा नहीं दिया। इसी वक्त पैसे दो।  -चाचा कमरा तो खोलने दीजिए। वह कमरा खोलता है। दोनों भीतर आ जाते हैं। मालिक कहता है - मैं किराया लेकर ही जाऊँगा। तुम मुझे समझे क्या हो? मैंने अच्छों-अच्छों को ठीक कर दिया है।

-हाँ, चाचा दूँगा किराया। आप बैठिए तो।

-बैठूँगा नहीं। सामान बाहर फेंक दूँगा। अभी किराया दो।

संगीतकार वोदका (शराब) की बोतल खोलता है। मालिक बैठ जाता है। संगीतकार एक पेग शराब उन्हें देता है एक खुद लेता है। चाचा शराब गटककर कहते हैं- मुझे इस तरह बहलाओ मत। किराया दो। निकालो पैसा।

-हाँ, हाँ, चाचा, दूँगा किराया।

मालिक बड़बड़ाता रहता है। संगीतकार एक पेग शराब और देता है। नशा चढ़ने पर मालिक का 'मूड' बदलता है। पर वह पैसा माँगता है। संगीतकार कहता है - चाचा आप और मैं एक सरीखे हैं। फर्क इतना ही है कि मुझे किराया देना पड़ता है और आपको किराया नहीं देना पड़ता क्योंकि आप मालकिन के पति के पद पर हैं। पर इससे क्या? मैं भी किसी स्त्री के पति के पद पर हो सकता हूँ।

मालिक की मनःस्थिति और बदलती है। वह कहता है- मेरी भी अच्छी नौकरी थी। मैंने नौकरी छोड़कर गलती की। यहाँ पर रहनेवाले मेरे बारे में क्या कहते हैं। संगीतकार कहता है- वही जो आप सोचते हैं (जोरू का गुलाम)।

मालिक को थोड़ी शराब और दी जाती है। वह कहता है- किसी पर निर्भर होना भी कितना बुरा है। वह मेरा अपमान करती है। मुझे डाँटती है। मेरे बच्चे भी मेरे नहीं रह गए। ऐसी बेशर्मी की जिंदगी मुझे जीना पड़ती है। मैं बहुत अभागा आदमी हूँ।

वायलिनवादक कहता है- कोई बात नहीं चाचा। आप दुख मत कीजिए। आप आखिर होटल के मालिक हैं। इतनी संपत्ति है आपकी। मालिक कहता है - संपत्ति क्या मेरी है? मैं तो एक मामूली नौकर हूँ। अच्छा होता कि पोस्टमास्टर ही रहता।

मालिक रोने लगता है। वायलिनवादक उसे समझाता है। कहता है- चाचा, मैं पूरा किराया कल चुकता कर दूँगा।

मालिक कहता है- नहीं, नहीं, उस कुतिया को एक कोपेक भी मत देना।

इस कहानी में पात्र वह है जिस पर लोग हँसते हैं और मजा लेते हैं- जोरू का गुलाम। पाठक भी उसकी स्थिति पर पहले हँसेगा। उसके दब्बू और रौबीले दो रूपों पर हँसेगा। पर अंत में वह सहानुभूति देगा। पति-पति है, मगर जायदाद मालिक की नहीं होकर उसकी पत्नी की है। संपत्ति पर अधिकार यह कर देता है कि बेचारे की हालत एक नौकर सरीखी हो जाती है। वह हुक्म बजाता है। एक अपमान की जिंदगी जीता है। जब पोस्टमास्टर था, तब वेतन कमाता था। तब वह परिवार का मालिक था। अब उसकी पीड़ा मन को छू जाती है।


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