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परसाई के राजनीतिक व्यंग्य

हरिशंकर परसाई

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :296
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9709
आईएसबीएन :9781613014189

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राजनीतिक विषयों पर केंद्रित निबंध कभी-कभी तत्कालीन घटनाक्रम को ध्यान में रखते हुए अपने पाठ की माँग करते हैं लेकिन यदि ऐसा कर पाना संभव न हो तो भी परसाई की मर्मभेदी दृष्टि उनका वॉल्तेयरीय चुटीलापन इन्हें पढ़ा ले जाने का खुद में ही पर्याप्त कारण है।

अब क्लर्क को विश्वास हो जाता है कि छींटे जरूर लगे हैं और साहब नाराज भी बहुत हैं। रात को उसे घबड़ाहट में नींद नहीं आती। वह पत्नी से कुछ नहीं कहता। सुबह वह दफ्तर पहुँचते ही साहब के कमरे में जाता है। और फिर माफी माँगता है - सर, मेरी कोई गलती नहीं। मैंने जानबूझकर वह हरकत नहीं की। माफ कर दीजिए। साहब चिल्लाता है - तुमने रात को भी परेशान किया और अब फिर आ गए। निकल जाओ। क्लर्क और घबड़ाता है। दोपहर के भोजन की छुट्टी में वह फिर जाता है और  गिड़गिड़ाना शुरू करता ही है कि साहब कहता है - तुम फिर आ गए। तुम्हारा क्या दिमाग खराब हो गया है। निकल जाओ। वह निकल जाता है। छुट्टी होने पर वह फिर साहब के कमरे में जाता है। उसे देखते ही  साहब चिल्लाता है - तुम मेरे पीछे पड़ गए। चपरासी इसे धक्का देकर  बाहर निकाल दो। चपरासी उसे निकाल देता है। क्लर्क किसी से नहीं कहता। वह घबड़ाता हुआ घर की तरफ चलता है। सोचता है - साहब की चाँद पर जरूर छींटे पड़े हैं। वह बहुत नाराज है। वह मुझे नौकरी से निकाल देगा। तब क्या होगा? मेरी बीबी और बच्चों का क्या होगा। वे तो भूखे मर जाएँगे। मैं उन्हें इतना प्यार करता हूँ। चलता जाता है और घुटता जाता है।

घर पहुँचता है। बीबी-बच्चों को देखता है। इनका क्या होगा? मैं तो नौकरी से निकाल दिया जाऊँगा।

वह पत्नी को कुछ नहीं बताता। एक गिलास पानी माँगता है। पानी पीता है और मर जाता है।

कहानी की खूबसूरती और तकनीकी विशेषता अद्भुत है। आरंभ में यह मनोरंजक स्थितियों वाली कहानी है। क्लर्क का भ्रम कि मेरी छींक साहब की चाँद पर पड़ गई है, विनोद पैदा करता है। फिर बार-बार क्लर्क का साहब के पास जाना और माफी माँगना, साहब का डाँटना सब विनोद की स्थितियाँ हैं। मगर विषाद? अंत तक पाठक हलके मन से यह सोचता है कि घबड़ा गया हे। एक दो दिन में ठीक हो जाएगा। क्लर्क न शिकायत करता, न चीखता, न हाय तौबा करता। बस - एक गिलास पानी पीता है और मर जाता है। चीखने-चिल्लाने वाला अंत इतना गहरा विषाद नहीं देता। क्या टिप्पणी है, तीखी अमानवीय-नौकरशाही पर। इस नौकरशाही में क्लर्क यह नहीं कह सकता है कि वह किस बात की माफी माँग रहा है और साहब के पास पाँच सेकेंड नहीं हैं, यह पूछने के लिए कि तू किस बात की माफी माँग रहा है।

दूसरी कहानी याद आती है - किराएदार (लाजर) एक पोस्टमास्टर है। वह, पत्नी और बच्चे मामूली हैसियत से रहते हैं। उसकी पत्नी के पिता की मृत्यु हो जाती है और वह बहुत सी जायदाद की मालकिन हो जाती है। वह पति से कहती है कि अपने पास अब बहुत पैसा है। तुम नौकरी छोड़ दो। हम कहीं पर्यटन स्थल पर होटल खोलेंगे। तुम नौकरी छोड़ दो।

वह नौकरी छोड़ देता है। वे एक होटल खोलते हैं। मालकिन पत्नी है। पति होटल का प्रबंध संभालता है। मालकिन होने के नाते पत्नी उस पर रौब गालिब किए रहती है। पोस्टमास्टर साहब दबे-दबे रहते हैं। पर अपनी इस हीनता को दबाकर मुसाफिरों और किराएदारों पर रोब गालिब करते हैं। होटल के दफ्तर से पत्नी की डाँट खाकर वे होटल में रहनेवालों को डाँटने निकल पड़ते हैं।

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