ई-पुस्तकें >> परसाई के राजनीतिक व्यंग्य परसाई के राजनीतिक व्यंग्यहरिशंकर परसाई
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राजनीतिक विषयों पर केंद्रित निबंध कभी-कभी तत्कालीन घटनाक्रम को ध्यान में रखते हुए अपने पाठ की माँग करते हैं लेकिन यदि ऐसा कर पाना संभव न हो तो भी परसाई की मर्मभेदी दृष्टि उनका वॉल्तेयरीय चुटीलापन इन्हें पढ़ा ले जाने का खुद में ही पर्याप्त कारण है।
वास्तव में असफल अभी भी नहीं हुआ है। कई कारखाने, संस्थान बहुत अच्छे चल रहे हैं। उनके माल की विदेश में खपत है। पर इस क्षेत्र के खिलाफ मानसिकता बनाई जाने लगी। अगर लाल बहादुर कुछ साल प्रधानमंत्री रहते तो यह क्षेत्र तभी आधा रह जाता।
बैंकों का राष्ट्रीयकरण करके इंदिरा गाँधी ने साहसिक कदम उठाया। वे सार्वजनिक क्षेत्र के उद्योगों में पैसा लगाना चाहती थी। प्राइवेट उद्योगों को मनमाना पैसा नहीं देना चाहती थीं। उन्होंने जिसे 'नेहरू का पंथ' कहते हैं, उस पर चलने की कोशिश की। 'गरीबी हटाओ' समाजवाद के दायरे में आता है।
राजीव गाँधी ने भी नेहरू के रास्ते पर चलने की कोशिश की। नेहरू, इंदिरा, राजीव का वंश एक था। उन्होंने कमोबेश समाजवादी विकास का रास्ता अपनाया।
नरसिंहराव की सरकार में नेहरू परिवार का कोई सदस्य नहीं है। इन्हीं सालों में समाजवादी सोवियत संघ टूटा। वहाँ समाजवाद छोड़ दिया गया। पश्चिम के नेताओं और विचारकों ने घोषणाएँ भी कि समाजवाद असफल और समाप्त हो गया। मार्क्सवाद एक मिथ था। पूँजीवाद सही रास्ता है। इधर भारत में कुछ लोग कहने लगे 'नेहरूवाद' संदर्भहीन हो गया। वित्तमंत्री मनमोहन सिंह ने पश्चिम के नारे ले लिए। विश्वबैंक और अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष से बहुत कर्ज ले लिया। पश्चिमी पूँजीवादी नारे ले लिए जैसे 'मार्केट इकानमी। कंट्रोल, लाइसेंस सब गए। स्वतंत्र पूँजीवाद और बाजार की शोषक व्यवस्था आ गई। नेहरू के साथ गुट निरपेक्षता, विश्वशांति भी जुड़े थे। कांग्रेस में नेहरू की नीतियों के समर्थक अभी भी बहुत हैं। तिरुपति में इन्होंने आवाज उठाई। नरसिंहराव ने इन्हें संतुष्ट करने के लिए कहा भी कि नेहरू की नीतियाँ ही चलेंगी। पर वास्तविक नई व्यवस्था में यह लिप सर्विस कहलाती है।
नेहरू वंश का राज खत्म हुआ। नेहरू की नीतियाँ लगभग खत्म मालूम होती हैं। पूँजीवादी प्रेस खुशी से घोषणा कर रहा है - नेहरू अप्रासंगिक हो गए।
इसीलिए पत्रिका ने लेख का उपशीर्षक दिया - तिरुपति में नेहरू ने राज सिंहासन त्यागा।
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