ई-पुस्तकें >> परसाई के राजनीतिक व्यंग्य परसाई के राजनीतिक व्यंग्यहरिशंकर परसाई
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राजनीतिक विषयों पर केंद्रित निबंध कभी-कभी तत्कालीन घटनाक्रम को ध्यान में रखते हुए अपने पाठ की माँग करते हैं लेकिन यदि ऐसा कर पाना संभव न हो तो भी परसाई की मर्मभेदी दृष्टि उनका वॉल्तेयरीय चुटीलापन इन्हें पढ़ा ले जाने का खुद में ही पर्याप्त कारण है।
देश में पूँजीपतियों, प्रतिक्रियावादियों और दकियानूस बौद्धिकों ने हल्ला मचाया कि नेहरू कम्युनिस्ट है। जबकि नेहरू की वैचारिक धरातल पर कम्युनिस्टों से बहुत बहसें हुई हैं। उनका कहना था कि मार्क्स के विचार तब बने जब औद्योगिक क्रांति का बचपन था। बदलते हुए विकास करते हुए विश्व समाज में उन्हें वैसा लागू नहीं किया जा सकता। नेहरू मार्क्सवादी नहीं थे। पर वे जड़ नहीं गतिशील मार्क्सवादी चिंतन चाहते थे!
वे इस नतीजे पर पहुँचे थे कि पूँजीवाद गरीबी, बेकारी, भुखमरी की समस्या हल नहीं करता बल्कि उन्हें बढ़ाता है। भारत जैसे गरीब विकासशील देश में समाजवाद का मार्ग ही कारगर हो सकता है। कांग्रेस को समाजवाद मनवाने में ही नेहरू को काफी साल लगे। बड़े नेता डा. राजेंद्र प्रसाद, सी. राजगोपालाचारी, सरदार पटेल, गोविंद वल्लभ पंत आदि समाजवाद विरोधी थे, जनता नेहरू के साथ थी। वे समाजवाद का कार्यक्रम सीधे जनता के पास ले गए।
इधर देश के पूँजीपतियों, उद्योगपतियों ने समझा कि नेहरू साम्यवाद लाएँगे। पूँजीवाद और निजी उद्योगों की रक्षा के लिए एक 'स्वतंत्र पार्टी' बन गई जिसके अध्यक्ष सी. राजगोपालाचारी तथा सचिव मीनू मसानी थे। एक 'फोरम फार फ्री एंटरप्राइज' बना।
औद्योगिक नीति में योजना आयोग ने प्राइवेट सेक्टर और पब्लिक सेक्टर रखे। मिश्रित अर्थ व्यवस्था लागू की गई। नेहरू का कहना था कि सार्वजनिक क्षेत्र बढ़ता जाएगा और देश की अर्थ व्यवस्था को नियंत्रित करेगा। इस तरह बिना वर्ग संघर्ष के संसदीय तरीके से समाजवाद आएगा। सार्वजनिक क्षेत्र में कारखाने खुलने का सिलसिला शुरू हुआ उत्साह से। सबसे पहले भिलाई इस्पात कारखाना। हिंद मशीन टूल्स, भारत हेवी इलेक्ट्रिकल्स, भारत एलुमीनियम, दवाओं के कारखाने खुले।
पर शिकायतें शुरू हो गईं। सार्वजनिक उद्योग किसी व्यक्ति या कंपनी का नहीं, पूरे देश का है। यह हम में से हर एक का और हम सबका है। इसे राष्ट्रीय बल्कि धार्मिक भावना से चलाना चाहिए। यह क्षेत्र हमारे देश को औद्योगिक शक्ति बनाएगा। साथ ही शोषण को मिटाएगा। मजदूरों के शोषण को उपभोक्ताओं के शोषण को। ऐसी भावना बनाने के लिए खुद नेहरू ने लोगों को काफी समझाया। वास्तव में समाजवाद के लिए कर्मचारियों को मजदूर संगठनों द्वारा शिक्षित किया जाना था। उनमें समाजवाद की भावना (स्पिरिट) पैदा करनी थी। यह नहीं की गई। जहाँ तक राजनेताओं का सवाल है, उन्होंने नेहरू के दबाव में बेमन से इस कार्यक्रम को स्वीकार किया। उनकी कोई रुचि इसकी सफलता में नहीं थी। नेहरू के बाद वे कहने लगे थे - पब्लिक सेक्टर इज नाट सैक्रेड काऊ यानी सार्वजनिक उद्योग क्षेत्र कोई पवित्र गाय नहीं है। उधर बाहर से पूँजीवादी षडयंत्र। निजी क्षेत्र द्वारा सेंध लगाना। इन कारखानों के सिरमौर अफसरशाह और तकनीकशाह को कोई विश्वास नहीं था इस कार्यक्रम में। पश्चिमी दिमाग के ये उच्च लोग भारतीय प्रयत्न का मजाक उडाते हैं। व्यवस्था का यह हाल। और अशिक्षित, भावनाहीन, गैरजिम्मेदार, भ्रष्ट मजदूर वर्ग। इन हालातों में सार्वजनिक उद्योगक्षेत्र अच्छी तरह चल नहीं सकता था। उद्योगपतियों के पूँजीवादी बौद्धिक लोग चिल्लाने लगे - यह तो नेहरू का आदर्शवाद था। सो असफल हो गया।
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