लोगों की राय

ई-पुस्तकें >> परसाई के राजनीतिक व्यंग्य

परसाई के राजनीतिक व्यंग्य

हरिशंकर परसाई

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :296
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9709
आईएसबीएन :9781613014189

Like this Hindi book 10 पाठकों को प्रिय

194 पाठक हैं

राजनीतिक विषयों पर केंद्रित निबंध कभी-कभी तत्कालीन घटनाक्रम को ध्यान में रखते हुए अपने पाठ की माँग करते हैं लेकिन यदि ऐसा कर पाना संभव न हो तो भी परसाई की मर्मभेदी दृष्टि उनका वॉल्तेयरीय चुटीलापन इन्हें पढ़ा ले जाने का खुद में ही पर्याप्त कारण है।


आचार्य नरेन्द्रदेव और समाजवादी आंदोलन


16 दिसंबर आचार्य नरेन्द्रदेव का जन्मदिन है। आचार्य नरेन्द्रदेव की भी यह शतवार्षिकी है। आचार्य नरेन्द्रदेव को शायद लोग भूल रहे हैं। नरेन्द्रदेव समाजवादी थे, समाजवादी दल के अध्यक्ष भी रहे थे। परम विद्वान, अनेक भाषाओं के पंडित, इतिहास और संस्कृति के प्रकांड अध्येता, प्रभावशाली वक्ता। वे उत्तर प्रदेश विधान सभा के अध्यक्ष रहे, लखनऊ और बनारस विश्वविद्यालय के कुलपति रहे। पाँच फीट से कुछ इंच ऊँचे, दमा के मरीज, दुर्बल आचार्य जी का इतना बौद्धिक और नैतिक दवदबा था कि बनारस के उपद्रवों के लिए कुख्यात विश्वविद्यालय में शांति रहती थी पंडित हजारी प्रसाद द्विवेदी ने बताया - एक दिन आचार्य जी ने मुझसे कहा कि द्विवेदी जी विश्वविद्यालय कोर्ट के लोग मुझे सीधा आदमी समझते हैं, जिसे बनाया जा सकता है। पंडित नेहरू आचार्य नरेंद्रदेव का बहुत आदर करते थे - उनके पांडित्य, नैतिकता और ईमानदारी का आदर। एक उप चुनाव में पंडित गोविंद वल्लभ पंत ने कांग्रेस टिकिट पर एक 'बाबा' को खड़ा करके नरेंद्रदेव को हरवा दिया था, जिस पर पंडित नेहरू बहुत नाराज हुए थे। नेहरू का कहना था कि नरेंद्रदेव के खिलाफ कांग्रेस को उम्मीदवार खड़ा नहीं करना चाहिए। आचार्य जी को निर्विरोध होकर आना चाहिए। नरेन्द्रदेव कांग्रेस टिकिट पर विधान सभा सदस्य थे। वे जब समाजवादी दल में गए तो विधानसभा से इस्तीफा दे दिया। दल बदलने पर सीट छोड़ने का जो कानून अब बना है, इसे नैतिकता के रूप में आचार्य नरेंद्रदेव ने शुरू किया था।

नरेंद्रदेव जयप्रकाश नारायण और राममनोहर लोहिया से भिन्न किस्म के समाजवादी थे। आचार्य जी मूल रूप से मार्क्सवादी थे। वे भाषणों में यह कहते भी थे और उनका विश्लेषण भी मार्क्सवादी था। साथ ही उन पर बौद्ध धर्म का भी प्रभाव था। बौद्ध धर्म का विश्वासी सहज ही मार्क्सवादी हो जाता है।

उदाहरण हैं- राहुल सांकृत्यायन, भदंत आनंद कौसल्यायन और कवि बाबा नागार्जुन। मूल मार्क्सवाद के साथ भारतीय इतिहास, दर्शन, परंपरा और जनचरित्र के तत्व मिलाकर नरेंद्रदेव ने जो बनाया था, उसे न कांग्रेसी समझे न कट्टर मार्क्सवादी। नरेंद्रदेव ने वर्ग-संघर्ष को नहीं नकारा, मगर हिंसा को जरूरी नहीं समझा। हिंसा को समाजवादी परिवर्तन के लिए न कार्ल मार्क्स ने जरूरी माना, न लेनिन ने। हिंसा को परिस्थितिवश जरूरी 'बुराई' ही माना है। गोर्बाचोव के नए विचारों से अहिंसा के मार्ग की ही पुष्टि होती है। अहिंसा की सफलता की भी शर्तें हैं।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

लोगों की राय

No reviews for this book

A PHP Error was encountered

Severity: Notice

Message: Undefined index: mxx

Filename: partials/footer.php

Line Number: 7

hellothai