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परसाई के राजनीतिक व्यंग्य

हरिशंकर परसाई

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :296
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9709
आईएसबीएन :9781613014189

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राजनीतिक विषयों पर केंद्रित निबंध कभी-कभी तत्कालीन घटनाक्रम को ध्यान में रखते हुए अपने पाठ की माँग करते हैं लेकिन यदि ऐसा कर पाना संभव न हो तो भी परसाई की मर्मभेदी दृष्टि उनका वॉल्तेयरीय चुटीलापन इन्हें पढ़ा ले जाने का खुद में ही पर्याप्त कारण है।

संसदीय लोकतंत्र की परंपराओं और 'रूल ऑफ ली' माननेवाले अंग्रेजों के सामने अहिंसा सफल थी। पर फासिस्ट हिटलर के सामने नहीं चलती। जयप्रकाश नारायण का मार्क्सवाद से मोह भंग हो गया था। वे पूरे गाँधीवादी भी नहीं हुए। परिणामस्वरूप वे अस्थिर विचारों के अवसरवादी हो गए और नेतृत्व की दुर्दमनीय आकांक्षा ने उन्हें 'लोकनायक' होना भी स्वीकार करा दिया और 1975 में दूसरों के द्वारा चलाई गई 'संपूर्ण क्रांति' (भ्रांति) के प्रेरणा पुरुष भी हो गए। उनकी मृत्यु हताशा में हुई।

नरेंद्रदेव की पार्टी में चलती, वे जीवित रहते, जयप्रकाश बिनोबा की शरण न जाते और फिर प्रति-क्रांतिकारी नहीं होते, लोहिया साम्यवाद विरोध को ढीला करके अराजकता की राजनीति छोड़ देते, साम्यवादी दल इन प्रगतिशील लोकतांत्रिक ताकतों से समझौता करता, तो एक वामपंथी विकल्प इस देश को तैयार मिलता। ऐसा नहीं हुआ, यह इस देश का दुर्भाग्य है। इससे बड़ा दुर्भाग्य यह है कि सारा देश सांप्रदायिकता, क्षेत्रीयता और आतंकवाद की गिरफ्त में है। जवाहरलाल नेहरू अनजाने ही शायद जयप्रकाश और लोहिया की इस स्थिति का कारण थे। जयप्रकाश की नेहरू से होड़ और उनका उत्तराधिकारी होने की आकांक्षा और लोहिया का कट्टर अतार्किक नेहरू विरोध। लोहिया कहते थे - जवाहरलाल तो बैंड मास्टर हैं। बैंड मास्टर की तरह हाथ में लकड़ी का 'बेटन' लिए रहते हैं।

सन् 1954 में नेहरू और जयप्रकाश में समझौता हो गया था। नेहरू ने तीव्रता से उद्योगों के राष्ट्रीयकरण और भूमि सुधारों के कार्यक्रम मान लिए थे और जयप्रकाश सहित चार समाजवादियों को मंत्रिमंडल में लेने का भी तय कर लिया था। इनमें से एक अर्थशास्त्री अशोक मेहता थे जो कांग्रेस में लौट गए। अर्थ मंत्री और योजना आयोग के उपाध्यक्ष रहे। तब समाजवादी दल की कार्यकारिणी में लोहिया ने नेहरू-जयप्रकाश समझौते को उड़ा दिया। उसे नामंजूर करा दिया गया। इसके बाद जयप्रकाश का वनवास सरीखा हो गया था। जयप्रकाश खुद लाल टोपी तब पहनते थे और हर समाजवादी को लाल टोपी पहनने का आदेश देते थे। लोहिया उसका मजाक उड़ाते थे। लोहिया ने लाल टोपी कभी नहीं पहनी। लोहिया बौद्धिक थे, चिंतक थे, संवेदनशील थे, साहसी थे। पर नेहरू विरोध और साम्यवाद विरोध उनके सिर पर सवार था। जयप्रकाश ने भी लाल टोपी त्याग दी। बाद में सर्वोदय में गए और 'जीवनदानी' हो गए। मैं व्यक्तियों पर नहीं लिख रहा हूँ राजनीति के प्रतीकों और संचालकों पर लिख रहा हूँ।

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