ई-पुस्तकें >> परसाई के राजनीतिक व्यंग्य परसाई के राजनीतिक व्यंग्यहरिशंकर परसाई
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राजनीतिक विषयों पर केंद्रित निबंध कभी-कभी तत्कालीन घटनाक्रम को ध्यान में रखते हुए अपने पाठ की माँग करते हैं लेकिन यदि ऐसा कर पाना संभव न हो तो भी परसाई की मर्मभेदी दृष्टि उनका वॉल्तेयरीय चुटीलापन इन्हें पढ़ा ले जाने का खुद में ही पर्याप्त कारण है।
स्वामी अग्निवेश बँधुआ मुक्ति आंदोलन चलाते हैं, यह अच्छी बात है। मगर आर्य समाजी हैं तो कुछ अर्थो में पुनरुत्थानवादी होंगे ही। फिर भी उनके आंदोलनों से कुछ कुप्रथाओं और मनुष्य विरोधी मान्यताओं के खिलाफ जनमत बनता है। सती प्रथा पर वे पुरी के शंकराचार्य से शास्त्रार्थ करनेवाले थे। अब शास्त्रार्थ अर्थहीन है। अगर निरंजन देव जीत जाते तो क्या भारतीय संविधान में सती प्रथा को मान्यता मिल जाती? या अग्निवेश कहते कि मैं हार गया। निरंजन देव सही कहते हैं।
पुनरुत्थानवाद से पुनरुत्थानवाद के हथियार से नहीं लडा जा सकता। आज जो प्रश्न है उस पर बहस आज के संदर्भ में ही हो सकती है। पुराने ग्रंथों में उसका हल नहीं खोजना चाहिए। शास्त्रार्थ करने के लिए हमारे यहाँ संसद है, विधान सभाएँ हैं। निरंजन देव और अग्निवेश दोनों ही प्राचीन में जाएँगे, तो उससे कोई लाभ नहीं होगा।
धर्म की भूमिका हमेशा प्रगतिशीलता विरोधी रही है। कहते हैं ईरान में अयातुल्ला खोमेनी के नेतृत्व में शिया संघर्ष ने महत्वपूर्ण भूमिका निबाही। मगर फिर ईरानी शासन कैसा हो गया? ईरानी समाज का क्या हाल हुआ? और अरब जगत में शिया उन्मादी दस्ते कितना ऊधम मचाते हैं। ईरानी समाज तो पिछड़ ही गया।
मगर रूस में जो हो रहा है वह समझने की जरूरत है। वहाँ धर्म पर 'पेरेस्त्रोइका' और 'ग्लासनास्त' का क्या असर पड़ा है। रूसी आर्थोडाक्स चर्च की स्थापना की हजारवीं वर्षगाँठ बड़े धूमधाम से मनाई गई। सोवियत पत्र-पत्रिकाओं में धुँआधार प्रचार रूसी कार्डिनल कहते हैं - हम 'पेरेस्त्रोइका' का समर्थन करते हैं। पेरेस्त्रोइका से चर्च को बड़ा लाभ हुआ है। वहाँ हरे कृष्णा हरे राम (इस्कान) वाले भी पहुँच गए हैं। पश्चिमी बंगाल में कृष्ण नगर में इनका एक आश्रम है, जो उधर के निवासियों और सरकार के लिए सिरदर्द है। मगर वे रूस पहुँच गए हैं। इतना ही नहीं भारत में 'इस्कान' के उत्सव में एक रूसी कूटनीतिज्ञ ने भाग लिया। मार्क्स ने कहा है-धर्म आत्महीन जगत में आत्मा की पुकार है। धर्म सुख का भ्रम पैदा करता है जबकि मनुष्य वास्तविक सुख चाहता है, जो सामाजिक परिवर्तन से आता है। रूस में धर्म पर औपचारिक पाबंदी कभी नहीं रही। चर्च हैं, मस्जिदें हैं, बौद्धमठ भी हैं। पर शिक्षा और दीक्षा के कारण धर्म मनुष्य के लिए जरूरी नहीं रहा। पर अब यह पुनरुत्थान हो रहा है। समाजवादी समाज में अग्रगामी शक्तियों के साथ मिलकर धर्म प्रगतिशील भूमिका कैसे निबाहेगा, यह आगे देखना है।
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