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परसाई के राजनीतिक व्यंग्य

हरिशंकर परसाई

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :296
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9709
आईएसबीएन :9781613014189

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राजनीतिक विषयों पर केंद्रित निबंध कभी-कभी तत्कालीन घटनाक्रम को ध्यान में रखते हुए अपने पाठ की माँग करते हैं लेकिन यदि ऐसा कर पाना संभव न हो तो भी परसाई की मर्मभेदी दृष्टि उनका वॉल्तेयरीय चुटीलापन इन्हें पढ़ा ले जाने का खुद में ही पर्याप्त कारण है।

स्वामी स्वरूपानंद ने अभी कहा है-जिस द्वार से मंदिर में हरिजन आवें उसी द्वार से दूसरे हिंदू तथा शंकराचार्य भी आवें। चतुराई का वाक्य है। इससे वह मान्यता टूटेगी। व्यवहार में खास कुछ नहीं होगा। जब तक हरिजन की आर्थिक, सामाजिक प्रतिष्ठा नहीं होगी, वह खुद ही इन भव्य इमारतों में नहीं जाएगा। वह मान्यता जरूर टूट जानी चाहिए। फिर इस मंदिर प्रवेश आंदोलन में राजनीति घुस आती है। मध्यप्रदेश के छत्तीसगढ़ में पंडातराई में मदिर प्रवेश आंदोलन हिसंक हो गया था। इसमें राजनीति आ गई थी। राम जन्मभूमि और बाबरी मस्जिद का विवाद देशव्यापी इसीलिए हो गया और खतरनाक हो गया क्योंकि इसमें राजनीति है - हिंदू और मुस्लिम बाँट। वरना सरकार, में साहस हो तो दोनों को पुरातत्व-विभाग को सौंप दे। गुरुनानक के बारे में एक किंवदंती है। बगदाद में वे मस्जिद की तरफ पाँव करके सो रहे थे। किसी ने उन्हें उठाया और कहा कि तुम मस्जिद की तरफ पाँव करके सो रहे हो। यह गलत है। नानक दूसरी तरफ पाँव. करके सो गए। उस आदमी ने देखा कि मस्जिद उनके पाँव की तरफ आ गई। किंवदती है, मगर अर्थ गहरा है। पूजास्थल भव्य इमारतें हैं, धर्म नहीं हैं। सच्चा धर्म भावना और आचरण में होता है। जिसे सर्वव्यापी माना जाता है, वह मंदिर या मस्जिद में कैद नहीं है। गरीबों के झोपडीनुमा मंदिर में भी भगवान है और विशाल भव्य मंदिर में भी। जितनी विशाल धर्म की जरूरत होगी, उतना बड़ा झगड़ा होगा।

इसी वक्त बिहार से खबर आई कि ग्यारह हरिजन मार डाले गए; मंदिर प्रवेश का अधिकार बाद में आता है। पहले जीने का अधिकार। संविधान में यह है पर बिहार में नहीं है। और जगह भी जहाँ माफिया गिरोह हैं, जीने का अधिकार नहीं है। ऐसी खबरों से न बिहार को कोई आघात लगता, न देश को। संवेदना कुंठित हो गई है। ये नीचे वर्ण के लोग नीचे वर्ग के भी है। खेत मजदूर हैं, बंधुआ मजदूर हैं। ये जमींदारों के, झगड़ों में शिकार होते हैं। किसानों के नाम से जो संगठन बने हैं, उनके संघर्ष के भी शिकार हैं। हर घटना के बाद औपचारिकताएँ होती हैं-मुख्यमंत्री वहाँ जाते हैं या किसी मंत्री को भेजते हैं। पुलिस सक्रिय। एक बार फिर सरकार सुरक्षा का आश्वासन देती है और कहती है ऐसी घटना कभी नहीं होगी। हफ्ते भर बाद फिर घटना हो जाती है। विपक्ष इतना करता है कि सरकार से इस्तीफे की माँग करता है। कांग्रेस में विरोधी गुट भी यही चाहता है। आर्थिक कारण मिटाए नहीं जाते। भूमि सुधार लागू नहीं किए जाते। न्यूनतम मजदूरी दिलाई नहीं जाती। सामंतवाद का खात्मा नहीं होता क्योंकि सामंतवाद के दम पर ही लोकतंत्र चल रहा है।

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