ई-पुस्तकें >> परसाई के राजनीतिक व्यंग्य परसाई के राजनीतिक व्यंग्यहरिशंकर परसाई
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राजनीतिक विषयों पर केंद्रित निबंध कभी-कभी तत्कालीन घटनाक्रम को ध्यान में रखते हुए अपने पाठ की माँग करते हैं लेकिन यदि ऐसा कर पाना संभव न हो तो भी परसाई की मर्मभेदी दृष्टि उनका वॉल्तेयरीय चुटीलापन इन्हें पढ़ा ले जाने का खुद में ही पर्याप्त कारण है।
नाथद्वारा में जो हुआ अच्छा हुआ। हरिजन भीतर गए। उन्हें पुरोहितों ने वल्लभ संप्रदाय के पुष्टि मार्ग में दीक्षित किया और उन्होंने पूजाकी। यों सवर्णों में भी कितने लोग पुष्टि मार्ग जानते हैं। मगर मंदिर के प्रबंधकों ने यह बताया कि एक विशेष धार्मिक शाखा का यह मंदिर है और उसमें विश्वास करनेवाले ही मंदिर में जा सकते हैं। स्वामी अग्निवेश के साथी कहते हैं कि यह सरकारी नाटक था। सरकार का सहयोग तो होगा ही। यहाँ टेलीविजन तैयार था। सब बातें पहले तय हो चुकी थीं। राजेंद्र कुमारी वाजपेयी ने संसद में घोषणा भी कर दी। यह शायद इसलिए किया गया कि स्वामी अग्निवेश के नेतृत्व में भीड़ आई तो गड़बड़ होगी। हरिजनों से अग्निवेश मुर्दाबाद के नारे भी लगवाए।
अग्निवेश उस पुरानी भेद की मान्यता को मिटाने के लिए लड़ते हैं। जरूरी नहीं है कि रोज हरिजन जाएँ। बहुत करके वे जाएँगे भी नहीं। रोज-रोज की झंझट कौन मोल ले। जहाँ तक खास मत के मदिरों का सवाल है, भारतवासी सभी जगह नमन कर लेता है। शिवजी के मंदिर की घंटी बजा दी। कृष्ण और राम की भी आरती कर ली। हनुमान का सिंदूर भी मस्तक पर लगा लिया। हिंदू स्वामी का भी आशीर्वाद ले लिया और मुसलमान फकीर से भी दुआ माँग ली। जगन्नाथ का रथ भी रख लेंगे और मुहर्रम का ताजिया भी।
कभी होता था, ऐसा कि शैव और वैष्णव में सिर फुटौअल होती थी। यही नहीं कृष्णभक्तों ओर रामभक्तों में भी लड़ाई होती थी। डा. रामशरण शर्मा ने लिखा है कि उड़ीसा में कृष्ण भक्त राम मंदिर लूटते थे और राम भक्त कृष्ण मंदिर लूटते थे। मंदिर बैंक थे। अब भी मंदिर खजाने हैं। यह कहना गलत है कि सिर्फ मुसलमान नवाब मंदिर लूटते थे और वह भी धार्मिक द्वेष के कारण। मंदिर धर्म के कारण नहीं धन के लिए लूटे जाते थे। गैर मुसलमान भी मंदिर लुटवाते थे। खजाने में धन की कमी हुई तो हुक्म दिया कि अमुक मंदिर लूट लाओ। सबसे ज्यादा मंदिर लुटवाए सम्राट हर्ष ने जो बौद्ध थे। मुसलमान नवाबों, शाहों का कोई मंदिर लूटने का डिपार्टमेंट नहीं था। पर हर्ष के शासन में मंदिर लूटने का एक विभाग था, जिसका संस्कृत नाम मैं भूल रहा हूँ।
स्वामी अग्निवेश का रास्ता वर्णभेद की उस पुरानी सख्त परंपरा को मंदिर के मामले में तोड़ना है। इसे वह भीड़-भाड़ नाटकीयता से करते हैं। वे राजनीति में भी हैं इसलिए दर्शकों और अखबारों का ख्याल रखते हैं। मेरा ख्याल है, मंदिर के प्रबंधकों और पुजारियों को मानना समझना चाहिए और उस परंपरा को सद्भाव से- खत्म कर देना चाहिए।
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