ई-पुस्तकें >> परसाई के राजनीतिक व्यंग्य परसाई के राजनीतिक व्यंग्यहरिशंकर परसाई
|
10 पाठकों को प्रिय 194 पाठक हैं |
राजनीतिक विषयों पर केंद्रित निबंध कभी-कभी तत्कालीन घटनाक्रम को ध्यान में रखते हुए अपने पाठ की माँग करते हैं लेकिन यदि ऐसा कर पाना संभव न हो तो भी परसाई की मर्मभेदी दृष्टि उनका वॉल्तेयरीय चुटीलापन इन्हें पढ़ा ले जाने का खुद में ही पर्याप्त कारण है।
हरिशंकर परसाई
जन्म :- 22 अगस्त, 1924, जमानी (इटारसी के पास), मध्यप्रदेश।
निधन :- 10 अगस्त, 1995।
शिक्षा :- नागपुर विश्वविद्यालय से हिंदी में एम.ए.।
किसी भी प्रकार की नौकरी का मोह छोड़कर परसाई ने स्वतंत्र लेखन को ही जीवनचर्या के रूप में चुना। जबलपुर से ‘वसुधा’ नाम की साहित्यिक मासिक पत्रिका निकाली, घाटे के बावजूद कई वर्षों तक उसे चलाया, अंत में परिस्थितियों ने बंद करने के लिए विवश कर दिया। अनेक पत्र-पत्रिकाओं में वर्षों तक नियमित स्तंभ लिखे—‘नई दुनिया’ में ‘सुनो भई साधो’; ‘नई कहानियाँ’ में ‘पाँचवाँ कालम’, और ‘उलझी-उलझी’; ‘कल्पना’ में ‘और अंत में’ आदि जिनकी लोकप्रियता के बारे में दो मत नहीं हैं। इनके अतिरिक्त परसाई ने कहानियाँ, उपन्यास एवं निबंध भी लिखे हैं।
कृतियाँ
उपन्यास - रानी नागफनी की कहानी, तट की खोज, ज्वाला और जल।
कहानी-संग्रह - हँसते हैं रोते हैं, जैसे उनके दिन फिरे।
व्यंग्य निबंध-संग्रह - तब की बात और थी, भूत के पाँव पीछे, बेईमानी की परत, वैष्णव की फिसलन, ‘पगडण्डियों का जमाना, शिकायत मुझे भी है, सदाचार का ताबीज, प्रेमचंद के फटे जूते, आवारा भीड़ के खतरे, सदाचार का ताबीज, अपनी अपनी बीमारी, दो नाक वाले लोग, काग भगोड़ा, माटी कहे कुम्हार से, ऐसा भी सोचा जाता है, विकलांग श्रद्धा का दौर, तिरछी रेखाएँ।
संस्मरणात्मक निबंध - हम एक उम्र से वाकिफ हैं, जाने पहचाने लोग।
|