ई-पुस्तकें >> परसाई के राजनीतिक व्यंग्य परसाई के राजनीतिक व्यंग्यहरिशंकर परसाई
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राजनीतिक विषयों पर केंद्रित निबंध कभी-कभी तत्कालीन घटनाक्रम को ध्यान में रखते हुए अपने पाठ की माँग करते हैं लेकिन यदि ऐसा कर पाना संभव न हो तो भी परसाई की मर्मभेदी दृष्टि उनका वॉल्तेयरीय चुटीलापन इन्हें पढ़ा ले जाने का खुद में ही पर्याप्त कारण है।
एक दिन अपने कमरे के सामने पार्वती का पल्ला खींचकर कमरे में ले जाना चाहता है। पार्वती उसे डाँटती है - तुम कहते हो कि पढ़ने में तुम्हारा मन नहीं लगता तो क्या तुम्हारा मन औरतों की साड़ी खींचने में लगता है? समय गुजरते पार्वती स्वयं सतीश के प्रति प्रेमभाव से बंध जाती है। वह सतीश को सुधारने लग जाती है। नारी है तो कमजोर चरित्र के पुरुष की रक्षा करती है उसकी खास देखभाल करती है। इस तरह के ममतामय संबंध दोनों के हो जाते हैं। पार्वती समर्पित हो जाती और सतीश बिगड़ता जाता है। यह उपन्यास उन्नीसवीं सदी का है। तब बंगाली समाज बहुत अधिक दकियानूस था। ऊँचे और नीचे वर्ण में बिलकुल अलगाव था। पार्वती उस समाज में नीचे दर्जे पर आती थी। सतीश ऊँची जाति और ऊँचे परिवार का था।
सवाल ये उठते हैं कि सतीश और पार्वती के संबंध क्या थे। शरतचंद्र ने संकेत नहीं दिया कि दोनों के शरीर संबंध हो गए थे। शरीर संबंध के बिना हालाँकि इतने गहरे भाव नहीं होते पर उपन्यास में केवल आत्मिक, अशरीर संबंध का उल्लेख है। इस प्रकार का यह प्रेम जिसमें इतनी गहराई कि, पार्वती पूरी तरह समर्पित है और सतीश उस पर पूरी तरह निर्भर है।
इन संबंधों की व्याख्या कई विद्वानों ने की है। उनका यह मानना है कि दोनों के शरीर संबंध थे पर शरतचंद्र इस बात को लिख नहीं सकते थे। उन्नीसवीं सदी की नैतिकता बड़ी कठोर थी। कुछ का कहना है उनके संबंध आध्यात्मिक थे। तीसरे प्रकार के लोग कहते हैं कि शरतचंद्र की मजबूरी थी कि इन संबंधों को इसी तरह अस्पष्ट रखें। प्रश्न उठते हैं कि दोनों की शादी क्यों नहीं कर दी, कारण पहला यह है कि भद्र पुरुष और नीचे दर्जे की स्त्री में विवाह उस समाज में हो नहीं सकता था। दूसरी समस्या है कि यदि शरतचंद्र उनकी शादी करवा ही देते तो उन्हें कहीं रखते। तब का बंगाली सामज उन्हें अपने बीच रहने नहीं देता। इस कारण बिना विवाह पति-पत्नी जैसे संबंध शरतचंद्र ने रखे। पढ़नेवाले को कोई भ्रम नहीं रहता है कि दोनों में कोई शरीर संबंध थे। पार्वती एक विशिष्ट स्त्री है। ऐसी स्त्रियाँ साहित्य में कम मिलती हैं।
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