ई-पुस्तकें >> परिणीता परिणीताशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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‘परिणीता’ एक अनूठी प्रणय कहानी है, जिसमें दहेज प्रथा की भयावहता का चित्रण किया गया है।
एक तो समर्थन करने का कुछ वास्तव में था नहीं, इस पर गुरुचरण के उत्पीड़ित और अशान्त हदय के साथ गिरीन्द्र की बातें पूर्णरूप से अक्षरश: मेल खा जाती थीं। अन्त को वे सिर हिलाकर कहते थे - ठीक कहते हो गिरीन्द्र बाबू। यथासमय अच्छे घर में योग्य वर के साथ अपनी कन्या का ब्याह कर देने की इच्छा किसे नहीं होती? मगर वह इच्छा पूरी किस तरह हो? मुझी को देखिए, मैं ऐसे उत्तम घर-वर को कन्या-दान किस तरह करूँ? समाज के सिरधरा कहते हैं कि लड़की सयानी हो चुकी है, उसे ब्याहो। मगर कोई माई का लाल ऐसा नहीं नजर आता जो इस काम में कुछ मेरी मदद करे। तुमने बहुत ही ठीक कहा गिरीन्द्र! मुझी को देख लो-- रहने का घर तक गिरों हो गया है। दो दिन बाद लड़की-लड़कों के साथ सड़क पर निकल खड़े होने की नौबत आवेगी- गली-गली की ठोकरें खाते फिरना होगा। उस समय तो समाज का कोई आदमी आकर इतना भी नहीं कहेगा कि आओजी, चलो, तुम हमारे घर में रहो- हम तुम्हें आश्रय देंगे? क्यों जी, ठीक है न?
गिरीन्द्र मौन-समर्थन करता हुआ चुप ही रहता था। गुरुचरण उसी सिलसिले में कहे जाते थे- तुम्हारा कथन सोलहों आने सच है भैया। ऐसे समाज का शासन मान कर उसके भीतर रहने की अपेक्षा उसे छोड़ देना हजार दर्जे अच्छा है। प्रपंचों-पंचों की वंचना से बचने में ही भला है। खाने को मिले या न मिले, शान्ति के साथ रहेंगे तो। जो समाज दीन-दुखी, दरिद्र का दुःख नहीं देखता, विपत्ति के समय साहस नहीं बढाता, केवल आँखें लाल-पीली करता और गला दबाने के लिए तैयार रहता है, उस समाज के भीतर मेरे लिए स्थान नहीं है; वह समाज मुझ सरीखे दुखियों या गरीबों के लायक नहीं है। वह अमीरों और बड़े आदमियों के लिए है। अच्छी बात है, वे ही उसमें रहें, हमारा कुछ काम नहीं है। इसी तरह कहते-कहते वे आप ही चुप हो जाया करते थे।
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