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परिणीता

शरत चन्द्र चट्टोपाध्याय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :148
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9708
आईएसबीएन :9781613014653

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‘परिणीता’ एक अनूठी प्रणय कहानी है, जिसमें दहेज प्रथा की भयावहता का चित्रण किया गया है।


युक्तियुक्त तर्क-शैली के साथ उपर्युक्त उदार उक्तियों को ललिता प्राय: प्रतिदिन मन लगाकर सुनती थी। केवल सुनती ही न थी, रात को जब तक नींद न आती तब तक बिछौने पर पड़ी-पड़ी, मन में उसी चर्चा के विषय में विचार किया करती थी। प्रत्येक वाक्य उसके हृदय-पटल में गहरी छाप डालता हुआ अच्छी तरह अंकित हो जाता था। वह अपने मन में कहती थी, गिरीन्द्र बाबू की बातें बहुत ही न्याय-संगत हैं।

ललिता मामा को बहुत चाहती थी। उसी मामा को अपने पक्ष में लाकर गिरीन्द्र जो कुछ भी कहता था, सब ललिता को अभ्रान्त सत्य प्रतीत होता था। उसका मामा, इन दिनों, खासकर उसी के लिए हैरान हो रहा है, इसी क्षमतातीत आशातीत कठिन कर्तव्य-पालन की उद्विग्न उत्कण्ठा में उसने अन्न-जल छोड़-सा दिया है। यह सब उसी के कारण तो हो रहा है-- उसे आश्रय देने ही से तो किसी से विरोध न करनेवाला उसका गरीब दुखिया मामा इतना क्लेश पा रहा है! किन्तु यह सब किसलिए? उसका ब्याह जल्दी न कर सकने से मामा जातिच्युत क्यों होगा? उसको समाज से बहिष्कृत क्यों होना पडे़गा? ललिता सोचने लगी- आज मेरा ब्याह कर देने के बाद दैव संयोग से अगर कल ही मैं विधवा होकर इसी घर में लौट आऊँ, तब तो मामा जातिच्युत न होंगे! किंन्तु इन दोनों स्थितियों में अन्तर कुछ भी नहीं है।

ये सब उक्तियाँ और युक्तियाँ गिरीन्द्र की थीं। उसकी इन बातों की प्रतिध्वनि को अपने भावातुर हृदय से निकालकर और एक बार अच्छी तरह आलोचना करते-करते ललिता सो जाया करती थी।

ललिता के मामा की ओर होकर, मामा के दुःख में सहानुभूति दिखाकर जो कोई कुछ कहता था उस पर श्रद्धा किये बिना, उसके मत के साथ अपना मत मिलाये बिना ललिता से रहा न जाता था। इसके सिवा उसके लिए और राह ही न थी। इसी कारण वह गिरीन्द्र पर आन्तरिक श्रद्धा करने लगी।

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