ई-पुस्तकें >> परिणीता परिणीताशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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‘परिणीता’ एक अनूठी प्रणय कहानी है, जिसमें दहेज प्रथा की भयावहता का चित्रण किया गया है।
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गुरुचरण उस प्रकृति के आदमी थे, जो हर उमर के - क्या छोटे क्या बड़े सभी - लोगों से मेल खा जाया करती है; जिस प्रकृति के आदमी से चाहे जो बिना किसी संकोच के बातचीत कर सकता है। यही कारण था, कि दो ही चार दिन साहब-सलामत होने से गिरीन्द्र और गुरुचरण में गहरी मित्रता हो गई थी। गुरुचरण के चित्त या मन में दृढ़ता तो नाम लेने को भी न थी। इसीलिए वे जैसे बहस करना पसन्द करते थे, वैसे बहस में हार जाने पर रत्ती भर असन्तोष या रोष प्रकट नहीं करते थे।
गिरीन्द्र को गुरुचरण शाम के बाद चाय का न्योता अक्सर दे रखते थे। उनके दफ्तर से लौटने में ही दिन खतम हो जाया करता था। आकर हाथ-मुँह धोने के बाद ही वे कहते थे- ललिता बेटी, चाय तैयार है क्या?
''काली, जा तो जरा, अपने गिरीन्द्र मामा को बुला ला।'' मेहमान के आते ही चाय पीने के साथ-साथ बहस का सिलसिला छिड़ता जाता था।
किसी-किसी दिन ललिता, मामा की आड़ में बैठकर, चुपचाप सुना करती थी। उस दिन फिर गिरीन्द्र की बहस में हजारों युक्तियों और तर्कों का खजाना-सा खुल जाता था। बहस का विषय प्राय: आधुनिक समाज ही होता था, और उसके विरुद्ध ही युद्ध की घोषणा की जाती थी। आजकल के संकीर्ण एवं जीर्ण-शीर्ण समाज की हृदयहीनता, असंगत उपद्रव और अत्याचार सभी समझदारों की आँखों में काँटे-से खटक रहे हैं। ये सभी आरोप सच्चे हैं।
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