ई-पुस्तकें >> परिणीता परिणीताशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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‘परिणीता’ एक अनूठी प्रणय कहानी है, जिसमें दहेज प्रथा की भयावहता का चित्रण किया गया है।
ललिता का चेहरा पीला पड़ गया। ताश की गड्डी हाथ से रखकर बोली-- शेखर दादा क्या आज दफ्तर नहीं गये?
''क्या मालूम-चले आये हैं'' कहकर गरदन हिलाकर काली चल दी।
ललिता ने भी ताश रख दिये, और मनोरमा की ओर कुण्ठित भाव से देखकर कहा- जाती हूँ मौसी।
मनोरमा ने चट उसका हाथ थाम लिया। बोली- यह कैसे हो सकता है जी; दो-चार हाथ तो और खेल लो। ललिता हड़बड़ाकर उठ खड़ी हुई, और बोली- ना मौसी, देर होने से दादा नाराज हो उठेंगे।
ललिता तेजी के साथ चली गई।
गिरीन्द्र ने पूछा- शेखर दादा कौन है बहन?
मनोरमा- वह जो सामने फाटक देख पड़ता है, उसी बडी इमारत में रहते हैं।
गिरीन्द्र ने गरदन हिलाकर कहा- वह-वह मकान। नवीन बाबू शायद उनके कोई आत्मीय हैं?
मनोरमा ने लड़की के मुंह की ओर देखकर मुसकराकर कहा - आत्मीय कैसे! ललिता के मामा की यह बाप-दादे की झोपड़ी तक तो वह बूढ़ा हड़प लेने की ताक में है।
गिरीन्द्र आश्चर्य-चकित भाव से बहन की ओर ताकने लगा।
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