ई-पुस्तकें >> परिणीता परिणीताशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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‘परिणीता’ एक अनूठी प्रणय कहानी है, जिसमें दहेज प्रथा की भयावहता का चित्रण किया गया है।
मनोरमा बोली- कैसे होगा भैया, आदमी कहाँ हैं खेलने वाले? न हो तो आओ, हम तीन ही जने खेलें।
गिरीन्द्र ने इस प्रस्ताव के प्रति कुछ उत्साह न दिखाकर उदास भाव से कहा- तीन आदमियों में कहीं खेल होता है! उस घर की उस लड़की-ललिता-यही तो नाम है शायद-हाँ, सो, उसे बुला भेजो न।
मनोरमा - वह न आवेगी।
गिरीन्द्र ने खिन्न होकर कहा- क्यों, आयेगी क्यों नहीं? शायद उसके घर के लोगों ने मना कर दिया हो- क्यों? मनोरमा ने गरदन हिलाकर कहा- नहीं, यह बात नहीं है। उसके मामा-मामी ऐसी तबियत के आदमी नहीं हैं। वह खुद ही नहीं आती।
गिरीन्द्र सहसा प्रसन्न होकर कह उठा- तब तो तुम्हारे एक बार जाने भर की जरूरत है। तुम्हारे जाकर जिद करने से जरूर आवेगी।
कहने को तो बात कह डाली, मगर मुँह से कहने के साथ ही गिरीन्द्र अपने मन में अत्यन्त अप्रतिभ हो उठा।
मनोरमा भी हँस पड़ी। ''अच्छा तो यही सही, जाती हूँ'' कहती हुई वह चल दी। थोड़ी देर के बाद ललिता को पकड़ लाई। बस, ताश का अड्डा गुलजार हो उठा।
दो दिन खेल नहीं हुआ था; आज थोड़ी ही देर में खेल खूब जम गया। ललिता की पार्टी जीतती जाती थी।
दो घण्टे के लगभग खेल होता रहा, इसके बाद अकस्मात् काली आ खड़ी हुई। उसने आते ही कहा- दिदिया, शेखर दादा बुला रहे हैं- चलो-जल्दी।
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