लोगों की राय

ई-पुस्तकें >> परिणीता

परिणीता

शरत चन्द्र चट्टोपाध्याय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :148
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9708
आईएसबीएन :9781613014653

Like this Hindi book 5 पाठकों को प्रिय

366 पाठक हैं

‘परिणीता’ एक अनूठी प्रणय कहानी है, जिसमें दहेज प्रथा की भयावहता का चित्रण किया गया है।


अब की शेखर ने आँखें खोलकर देखा, और हँसते हुए कह्म-- भला मुँह से बोल तो फूटा! नीचे काम नहीं है, तो बगलवाले घर में बहुत काम होगा। वहाँ भी न हो तो उसके आगे के घर में काम की कमी न होगी। तुम्हारा घर एक ही तो नहीं है ललिता!

''सो तो है ही'' कहकर ललिता ने क्रोध के मारे मिठाई की रकाबी को तनिक जोर से टेबिल पर रख दिया, और तेजी के साथ कमरे के बाहर निकल गई।

शेखर ने पुकारकर कहा-- शाम के बाद जरा फिर हो जाना।

''सैकड़ों दफे ऊपर-नीचे चढ़ना-उतरना मुझसे नहीं हो सकता।'' यह कहती हुई वह चली गई।

नीचे आते ही मां ने कहा- अपने दादा को मिठाई और पानी तो दे आई, मगर पान भूल ही गई। फिर जाना पड़ेगा।

''मुझे तो बड़ी भूख लग रही है मां, अब मुझसे ऊपर चढ़ा-उतरा न जायगा, और किसी के हाथ भेज दो पान।'' यह कहने के साथ ही वह लद से नीचे बैठ गई। ललिता के मनोहर मुख-मण्डल में रोष का असन्तोष झलकता देखकर भुवनेश्वरी ने मन्द मुसकान के साथ कह दिया- अच्छा अच्छा, तू बैठकर खा-पी ले; किसी महरी के ही हाथ भेजे देती हूँ।

ललिता ने फिर कुछ कहा-सुना नहीं--जाकर भोजन करने बैठ गई।

वह उस दिन थियेटर देखने नहीं गई थी-फिर भी शेखर ने उसे बका-झका, यही ललिता को बुरा लगा। इसी पर रूठकर ललिता चार-पाँच दिन शेखर को नहीं दिखाई दी। मगर शेखर के दफ्तर जाने पर दोपहर को रोज जाकर वह शेखर के कमरे की सफाई वगैरह अपना काम सब कर आया करती रही। अपनी गलती मालूम होने पर शेखर ने दो दिन बराबर ललिता को बुला भेजा, मगर वह नहीं आई।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book