ई-पुस्तकें >> परिणीता परिणीताशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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‘परिणीता’ एक अनूठी प्रणय कहानी है, जिसमें दहेज प्रथा की भयावहता का चित्रण किया गया है।
शेखर ने खिजलाकर कहा- नीचे जाओ, मां बुला रही हैं। भुवनेश्वरी भण्डारे की कोठरी के सामने बैठी जलपान का सामान रकाबी में रख रही थीं। ललिता ने पास आकर पूछा-- मुझे बुला रही थीं मां?
''कहाँ, मैंने तो नहीं बुलाया!'' कहकर सिर उठाकर ललिता का मुख देखते ही उन्होंने कहा- तेरा चेहरा ऐसा सूखा हुआ क्यों है ललिता? जान पड़ता है, आज अभी तक तूने कुछ खाया-पिया नहीं-क्यों न?
ललिता ले गरदन हिलाई।
भुवनेश्वरी बोलीं- अच्छा, जा अपने दादा को जलपान का सामान देकर जल्दी मेरे पास आ।
ललिता ने दम भर बाद मिठाई की रकाबी और जल का गिलास लिये हुए ऊपर आकर कमरे में देरवा, शेखर अभी तक उसी तरह आखें मूँदे लेटा हुआ है। दफ्तर के कपड़े भी नहीं उतारे। न हाथ और मुँह ही धोया। पास आकर धीरे से उसने कहा-- जल-पान का सामान लाई हूँ।
शेखर ने आँखें खोले बिना ही कह दिया-- कहीं रख जाओ।
मगर ललिता ने रक्खा नहीं। वह हाथ में लिये चुपचाप खड़ी रही।
शेखर को आँखें न खोलने पर भी मालूम पड़ रहा था कि ललिता वहीं खड़ी है, गई नहीं। दो-तीन मिनट चुप रहने के बाद शेखर ही फिर बोला-- कब तक इस तरह खड़ी रहोगी ललिता? मुझे अभी देर है; रख दो और नीचे जाओ।
ललिता चुपचाप खड़ी-खड़ी मन में बिगड़ रही थी। मगर उस भाव को दबाकर कोमल स्वर में बोली- देर है, तो होने दो, मुझे भी तो इस समय नीचे कोई काम नहीं करने को है।
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