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नीलकण्ठ

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :431
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9707
आईएसबीएन :9781613013441

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गुलशन नन्दा का एक और रोमांटिक उपन्यास

विष्णु बस्ती की ओर चल पड़ा। वह बेला की आँखों में आज एक विचित्र चमक देख रहा था। जिसमें प्यार के साथ भयानक बिजली भी छिपी हुई थी। वह घर से निकल पड़ा पर उसके पांव न जाने बस्ती की ओर क्यों न उठ रहे थे। उसका अज्ञान मन कह रहा था कि उसकी अनुपस्थिति में कोई असाधारण घटना घटने वाली है। बाबूजी उस पर घर का पूरा उत्तरदायित्व छोड़ गए हैं और किसी को कुछ हो गया तो - वह यह सोचकर कांप उठा। इसी उलझन में वह एक घनी झाड़ी की ओट में बैठकर झील को देखने लगा। यहाँ से हिलने को उसका मन न किया।

बेला ने जब देखा कि विष्णु बस्ती में चला गया है और हर ओर फिर से नीरवता छा गई है तो उसने संतोष की सांस लेते हुए दूर तक दृष्टि दौड़ाई। उसका हृदय तेजी से धड़क रहा था। जैसे कोई पक्षी पिंजरे में सिर पटक रहा हो। बेला सीढ़ियों उतरकर झील के किनारे जा पहुँची और थोड़ी दूर बंधी सरकारी नाव को खोल चप्पू से खेती बरामदे की सीढ़ियों तक ले आई।

मोहन को कंधे का सहारा देकर उसको नाव में बिठाने के लिए उठाया तो वह लड़खड़ाकर गिरते-गिरते बचा। बेला ने उसे अपनी छाती से लगाकर प्यार करते हुए कहा-'घबराओ नहीं, मेरी बांहों का सहारा जब तक है तुम्हें कुछ न होगा।'

बेला ने मोहन को नाव के बीच वाले तख्ते पर लिटा दिया और स्वयं चप्पू लगाकर उसे झील के बीच में ले आई। ज्यों-ज्यों नाव धीरे-धीरे पानी को चीरती आगे बढ़ती जाती त्यों-त्यों बेला के मन का भय और धड़कन तेज होती जाती।

नाव कुछ और आगे निकल आई। बेला ने देखा दूर तक कोई जीव दिखाई न देता था। दिल दहला देने वाला मौन छा रहा था।

उसे लगा जैसे नाव में कोई लाश रखी हो जिसे वह खींचकर कहीं ले जा रही है। भय से उसके माथे पर श्वेद बिन्दु एकत्र हो गए जिन्हें उसने कुहनी उठाकर साफ कर दिया।

बेला में इतना साहस नहीं था कि मोहन की आँखों से आँखें मिला सकती। बिना उत्तर दिए ही वह, अपने मुँह पर एकाएक उभर आई कुरूपता को छिपाने के लिए झील में कूद गई।

मोहन झट से उठकर बैठ गया और भाभी को देखने लगा जो मछली की भांति अपने शरीर का अंग-अंग निर्मल जल में लहरा रही थी। झील का मौन और नीला पानी बेला के शरीर से स्पर्श करते ही एक मधुर हल्की-सी ध्वनि करने लगा जो घाटी में गूंज रही थी।

बेला तैरते-तैरते नाव तक आ पहुँची और उसका सहारा लेकर आधा धड़ पानी से बाहर निकाला। मोहन विस्मित उसे देखता हुआ बोला- 'भाभी यों लगता है जैसे तुम जलपरियों की राजकुमारी हो।'

'तो आओ - राजकुमार तुम्हें भी अपनी नगरी की सैर करवा दूँ।'

मोहन अपनी भाभी का हाथ पकड़कर झील में उतर गया। गहरे पानी में उतरते ही उसे कंपकंपी-सी लगी जैसे उसे गहरी खाई में अचानक धकेल दिया गया हो। भाभी का पकड़ा हुआ हाथ उसे एक स्थिर चट्टान का सहारा लगने लगा। दोनों ने भयभीत दृष्टि से एक-दूसरे को देखा और मुस्करा दिए। बेला ने कसकर दोनों हाथ पकड़ लिए और उसे पांव पानी में चलाने को कहा। मोहन ने धीरे-धीरे पैर उठाकर पानी में हिलाने आरंभ कर दिए। उसने अनुभव किया कि यह केवल उसका भय ही था। प्रयत्न करने पर वह अपनी विवशता पर विजय पा सकता है।

भाभी के सहारे वह धीरे-धीरे पांव चलाता गहरे पानी में बढ़ने लगा। साथ-साथ नाव भी बढ़ती गयी। बेला छिपी-छिपी चोर दृष्टि से झील के चारों ओर देख रही थी। दूर-दूर तक कोई मानव क्या कोई पशु-पक्षी भी दिखाई न देता था। चारों ओर चुप्पी का राज्य था।

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