ई-पुस्तकें >> नीलकण्ठ नीलकण्ठगुलशन नन्दा
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गुलशन नन्दा का एक और रोमांटिक उपन्यास
नाव धीरे-धीरे लहरों पर अठखेलियां लेती भंवर की ओर बढ़ती जा रही थी - ठीक उसी भंवर के समान बेला की आन्तरिक दशा थी। मन की गहराईयों से उठता हुआ तूफान उसके मस्तिष्क में उलझनें भर रहा था, डाह, विवशता, विश्वासघात और प्रेम - सबसे एक विचित्र युद्ध हो रहा था - कुछ कहा न जा सकता था कि विजय किसकी होगी।
नाव भंवर के समीप आ पहुँची - बेला के हाथों की पकड़ पहले से ढीली पड़ गई - मोहन भी अभ्यास करते-करते थक चुका था और बार-बार भाभी से बाहर निकलने की प्रार्थना कर रहा था और वह मौन उसे देखे जा रही थी - उसमें इतना बल न था कि मोहन की बातों का उत्तर दे - उसने देखा कि वह थककर सांस से पानी के बुलबुले छोड़ रहा है, उसका जीवन भी तो उन बुलबुलों के समान चंद क्षण का था।
'भाभी मैं थक गया हूँ - मुझे खींच लो - अब मुझसे और अभ्यास नहीं हो सकता, देखो तो मेरा सांस फूल रहा है-’ कठिनाई से निकलते हुए इन शब्दों को बेला ने ध्यान से सुना जैसे ये शब्द किसी के जीवन के अंतिम शब्द थे - वह फिर चुप रही और उसने अठखेलियां लेती नाव को बढ़ने से न रोका।
सहसा किसी क्रूर शक्ति ने बेला पर अधिकार पा लिया और उसने मोहन का हाथ छोड़ दिया। वह तड़पा और बेबस होकर हाथ-पांव मारने लगा। उसने सहायता के लिए भाभी को पुकारना चाहा पर गले से निकले शब्द पानी के बुलबुले बनकर रह गए - उस गहरी झील के तल पर जीवन के ये चन्द बुलबुले जो एक क्षण में मिट जाएँगे।
बेला ने झट से चप्पू संभाले और नाव को भंवर से अलग कर दिया। उसने चारों ओर दृष्टि दौड़ाई और उस सन्नाटे में जोर से चिल्लाई - मोहन! मोहन!' वह दो बार ही चिल्लाई। आवाज घाटी में गूंज उठी और कहीं जंगल में दूर बैठे लकड़हारे बेला की चीख-पुकार सुनते ही उस ओर दौड़े - उसने ध्यानपूर्वक देखा, दूर की एक झाडी से विष्णु भी निकलकर उधर भाग रहा था। उसे देखते ही बेला पागलों की भांति चिल्लाने लगी, 'बचाओ-बचाओ-मेरे नन्हें राजे को बचाओ' 'मेरे मोहन को बचाओ-’
जब विष्णु जरा समीप आया तो बेला चिल्लाते हुए स्वयं झील में कूद पड़ी और इधर-उधर हाथ मारने लगी। उसे देखकर उन लकडहारों में से दो-एक ने छलांग लगा दी पर सब व्यर्थ था। कोई भी उसके शरीर को बाहर निकालने में सफल न हुआ। लगता था कि भंवर में उसे कोई जानवर निगल गया है या किसी पुराने दलदल में फंसकर रह गया है।
आधे घंटे की अथक खोज के पश्चात् जब बेला झील से बाहर आई तो सबसे पहले उसकी दृष्टि विष्णु से चार हुई। आँखें मिलते ही बेला सिर से पांव तक कांप गई। विष्णु ने उसे कड़ी और भयानक दृष्टि से देखा मानों उससे कह रहा हो कि नन्हें की मृत्यु की उत्तरदायी तुम हो।
लकड़हारे लौट गए। अपने कांपते होंठों को दाँतों तले दबाते बेला धीरे से बोली- 'विष्णु! यह क्या अनर्थ हुआ?'
विष्णु चुप रहा।
'विष्णु भैया, मैं उन्हें क्या उत्तर दूँगी?'
विष्णु ने पहले आकाश की ओर देखा फिर उसने झील की ओर देखते हुए कहा- ’मानव जब भी कोई पाप करता है तो उसे उसी समय भगवान का विचार आता है। बीबीजी, आपका भगवान कल ही आपसे पूछे तो क्या उत्तर देंगी। नन्हें की मृत्यु की उत्तरदायी आप हैं - आप ही ने उसे झील में डुबोया है।'
'विष्णु-’ बेला उसी थरथराती आवाज में चिल्लाई और तेज-तेज पग उठाती अपने कमरे की ओर बढ़ी। विष्णु भी धीरे-धीरे उसके पीछे हो लिया।
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