ई-पुस्तकें >> नीलकण्ठ नीलकण्ठगुलशन नन्दा
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गुलशन नन्दा का एक और रोमांटिक उपन्यास
कपड़े बदलकर बेला गोल कमरे में लौटी तो दरवाजे का सहारा लिए विष्णु पहले ही खड़ा था जैसे वह बेला से अपने प्रश्न का उत्तर लेने के लिए खड़ा हो।
बेला उसके पास आ खड़ी हुई और होंठों पर फीकी मुस्कुराहट लाते हुए हाथ उसकी ओर बढ़ाया - बेला की पतली उंगलियों में एक सौ का नोट था जो वह विष्णु को दे रही थी।
विष्णु ने एक दृष्टि नोट पर डाली और दूसरी बेला पर। उसकी उंगलियों के नाखूनों पर लगी क्यूटेक्स की लाली ऐसे प्रतीत हो रही थी जैसे किसी के ताजा लहू के धब्बे - वह नम्रता से बोली- 'ले लो - कोई बात नहीं।'
'शायद आप इससे मेरा धर्म खरीदना चाहती हैं।'
'क्या यह कम है?'
'जी - और शायद आप अपने धर्म को बेचकर भी मेरा धर्म नहीं खरीद सकतीं।'
'बदतमीज-’ विष्णु के गाल पर जोर से एक थप्पड़ लगाते हुए वह हांफते हुए गरजती हुई आवाज में कहने लगी-'शायद तुम अपनी औकात भूल गए हो।' विष्णु क्रोध में दांत पीसता हुआ बाहर आ गया और बरामदे के मुंडेर पर सिर टेककर बच्चों की भांति फूट-फूटकर रोने लगा। खेद था तो उसे केवल इस बात का कि वह खड़ा तमाशा देखता रहा और नन्हें को बचा न सका - वह आनंद को क्या उत्तर देगा - वह उससे क्योंकर कहेगा कि इस भले बालक की हत्या करने वाली उसकी अपनी बीवी है।
थोड़े समय में बीनापुर में हाहाकार मच गया। पुलिस वालों ने झील में जाल फैलाकर खोज की पर लाश का पता न चला।
कंपनी की ओर से ही आनंद को बंबई तार डलवा दिया गया।
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