ई-पुस्तकें >> नीलकण्ठ नीलकण्ठगुलशन नन्दा
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गुलशन नन्दा का एक और रोमांटिक उपन्यास
पन्द्रह
आनंद की अनुपस्थिति में जो कुछ हुआ उस पर उसे विश्वास नहीं हो रहा था। वह घंटों उस झील के किनारे खडा उसकी नीली गहराईयां देखता रहा - शायद मोहन किसी लहर की उछाल में ऊपर आ जाए।
उसे झील में ले जाने की उत्तरदायी उसकी अपनी बीवी थी। इसलिए उसकी व्यग्रता और बढ़ती जा रही थी। कल उसके माँ-बाप बीनापुर आ रहे थे। शायद उन्हें भी ऐसे ही विश्वास न रहा हो और वे स्वयं उस हिंसक झील को देखना चाहते हों जिसने बुढ़ापे में उनका सहारा निगला था।
आनंद पागलों की भांति अपना सिर किसी दीवार से टकरा देता और रोने लग जाता - कल माँ-बाप को क्या मुँह दिखाएगा - वह उन्हें क्योंकर कहेगा कि उनकी ओंखों का उजाला उन्हें छोड़कर चला गया।
बेला की चिन्ता भी कुछ कम न थी। उसने यह भयानक पग सब कुछ सोच-विचार कर ही उठाया था, परंतु विष्णु यह भेद जान गया है। यदि उसने यह बात प्रकट कर दी तो वह कहीं की न रहेगी। इसी चिन्ता ने उसकी नींद और चैन छीन रखी थी। वह खोई-खोई रहती।
वह कोई ऐसी युक्ति सोच रही थी जिससे आनंद के मन में उसके प्रति कोई शंका उत्पन्न न होने पाए। इससे पूर्व कि इस अग्नि का लेशमात्र धुआं भी उठे। वह उसे दबा देना चाहती थी।
आनंद ने बेला को चिन्तित देखकर उसका सिर अपने सीने से लगा लिया और उसके बालों में उंगलियाँ फेरते हुए बोला- 'यदि तुम यों ही रहने लगीं तो मेरा क्या होगा?'
'यह सोचती हूँ - क्या था क्या हो गया?'
'होनी के आगे चलती किसकी है - ढांढस रखो, कल बाबा और माँ जी आ रहे हैं।'
'आनंद' बेला ने गर्दन उठाकर आँखें चार करते हुए कहा।
'क्या है बेला?'
'आपसे कुछ कहना है-
'हाँ, हाँ, कहो-चुप क्यों हो गईं।'
'यह विष्णु है न - इसका घर में आना ठीक नहीं।' बेला ने एक और पासा फेंका।
'वह क्यों ? - क्या कुछ-’
'बस, मैं उसकी सूरत भी देखना नहीं चाहती' आनंद की कमीज के बटनों को खोलते-बंद करते वह बोली।
'परंतु बात क्या है? बेला पहेलियों से बात न करो। मुझमें अब इतनी सहन शक्ति नहीं', आनंद ने झुंझलाते हुए कहा।
'मोहन के डूबने वाली शाम को जब मैं अकेली बैठी रो रही थी तो वह चुपके से आया' कहते-कहते बेला रुक गई। आनंद ने आश्चर्यचकित दृष्टि से बेला को देखते हुए कुछ और पूछना चाहा परंतु वह स्वयं ही बोल उठी- 'और मुझे अकेला देख मेरी कलाई पकड़ ली।'
'विष्णु-’ क्रोध से दांत पीसता हुआ आनंद बड़बड़ाया और झट बोला, 'फिर क्या?'
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