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नीलकण्ठ

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :431
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9707
आईएसबीएन :9781613013441

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गुलशन नन्दा का एक और रोमांटिक उपन्यास

'फिर तुम्हें एक शुभ सूचना सुनाऊँगा।'

'क्या?'

'चाय के बाद।'

'नहीं - इतनी प्रतीक्षा न हो सकेगी।'

'तो सुनो - कल मैं तुम्हारे मायके यानी अपने ससुराल जा रहा हूँ।'

'किसलिए?'

'कंपनी के काम पर - मोटरों के पुर्जों इत्यादि का प्रबंध करना है - और हाँ, इस बार मेरा अधिक व्यापार तुम्हारी दीदी से होगा।'

दीदी का शब्द सुनते ही वह सिर से पांव तक कांप गई। वह आश्चर्य से विस्फारित दृष्टि अभी आनंद पर जमा भी न पाई थी कि आनंद बात को जारी रखते हुए बोला-

'हाँ तुम्हारी दीदी के कारखाने में बने पुर्जों को हमारी कंपनी ने बहुत पसंद किया है और उसके साथ एक एग्रीमेंट लिखने को कहा है।'

'क्या एग्रीमेंट?'

'व्यापार का - चन्द पुर्जों की मौनापली हम ले रहे हैं - इसमें हमारा भी लाभ है और तुम्हारी दीदी का भी।'

'ओह - तो अच्छा ही है - दीदी भी क्या याद रखेंगी कि आप उसके कितने काम आए।'

'और मजे की बात यह है, वह मुस्कुराते हुए बोला-' संध्या अभी तक नहीं जानती कि हमारी कंपनी और उसके कारखाने के मध्य बातचीत के पीछे मेरा हाथ है।'

'और जब वह जान जाएगी तो प्रसन्नता से फूली न समाएगी।' बेला ने मन-ही-मन यह बात सोची पर मुँह तक न ला सकी और तेजी से चाय बनाने लगी।

हुमायूं के चले जाने पर बेला बोली-'मैं भी संग चलूँगी।'

'कहाँ?'

'बंबई। पापा कई बार लिख चुके - अवसर भी अच्छा है, दोनों आ रहे हैं।'

'नहीं बेला, तुम्हारा जाना ठीक नहीं।'

'वह क्यों?'

'मोहन जो है - उसे अकेले छोड़कर जाना उचित नहीं।'

'परंतु हम अकेले इस सुनसान-’

'विष्णु को कह दिया है, वर्कशॉप बंद होते ही वह यहाँ आ जाएगा। रात तक तो खाने आदि में सहायता देता ही है, दो-चार रात सो भी यहीं जाएगा।'

'तो क्या मोहन दो दिन विष्णु के पास न रह सकेगा?'

'नहीं - तुम भी विचित्र बातें करती हो, भला उसको अकेले छोड़कर हम क्योंकर जा सकते हैं।'

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