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नीलकण्ठ

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :431
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9707
आईएसबीएन :9781613013441

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गुलशन नन्दा का एक और रोमांटिक उपन्यास

उसी रात मोहन आ गया। भाभी और भैया दोनों उसे स्टेशन पर लेने गए। बेला ने कंधे का सहारा देकर उसे गाड़ी में बिठाते हुए कहा-

'मोहन, कितना अच्छा हुआ तुम यहाँ आ गए।'

'सच भाभी, मैं तो सोच रहा था कि कहीं मुझ अपाहिज को देखकर भाभी नाक ही न सिकोड़ लें।'

'तुम्हारी भाभी ऐसी नहीं - और तुम मन क्यों छोटा करते हो, ठीक हो जाओगे।'

'तुम भी दूसरों के समान झूठी तसल्लियाँ देने लगीं। जब मैं जान गया हूँ कि यह टांग कभी ठीक न होगी।'

मोहन को बीनापुर बहुत अच्छा लगा - झील के किनारे उनका छोटा-सा सुंदर मकान, पक्षियों के मधुर गीत और दूर घाटी में गूंजती हुई झरनों की झर-झर बरामदे में बैठकर जब वह यह दृश्य देखता तो उसके मन में गुदगुदी उठती, वह इस घाटी की गोद में एक शांति सी अनुभव करता, यहाँ लोगों का हो-हल्ला, साथियों के ठहाके और उनकी छेड़छाड़ न थी - उसकी हर मुस्कान का साथ देने के लिए आनंद, बेला और प्रकृति का यह दृश्य था।

एक दिन इसी ध्यान में खोया वह भाभी से कह उठा- 'जी चाहता है - जीवन भर तुम्हारी इसी बगिया में पड़ा रहूँ।'

'क्यों नहीं - अब हम तुम्हें जाने थोड़े ही देंगे।' भाभी ने धीरे से कहा।

'हाँ मोहन, तुम पढ़ाई पूरी कर लो - फिर तो यहीं रहना है, तुम्हें हमारे पास', पास की कुर्सी पर बैठे आनंद ने कहा।

आनंद की यह सांत्वना हो सकता है समय की आवश्यकता ही हो। बेला जानती थी कि इस अपाहिज का बोझ उन्हें ही जीवन भर उठाना होगा।

उसने देखा जब से मोहन उसके पास आया है आनंद का व्यवहार बदल गया है। काम से लौटते ही बस एक बहलावे की मुस्कान उसके लिए थी 'हैलो बेला-'

और फिर वही मोहन की पुकार। कहीं दो घड़ी के लिए भी बाहर जाते तो विवश मोहन को साथ ले जाना पड़ता और फिर थोड़ा ही चलकर घर लौट आते क्योंकि अधिक चलना मोहन की टांगें सहन न कर सकतीं। यदि कभी उसे अकेला छोड़कर दो-घड़ी के लिए कहीं निकल भी जाते तो उसका ध्यान उन्हें बढ़ने न देता।

इसी उलझन में बेला का जीवन दूभर होने लगा।

एक दोपहर को अचानक बेला के कानों में आवाज आई- 'भाभी-’

'क्या है मोहन?' उसने बिस्तर पर लेटे ही पूछा।

'कोई मिलने आए हैं।'

अपने बालों को संवारती हुई वह अर्धनिद्रा में ही गोल कमरे में चली आई जहाँ मोहन बैठा पढ़ रहा था।

'आप कब आए' झट उसकी जबान से निकला और वह बैठने का संकेत करते हुए आगे बढ़ी।

यह मिस्टर हुंमायूं थे जो इन घाटियों में किसी नई शूटिंग के सिलसिले में आए थे और काम से अवकाश पाते ही आनंद से मिलने चले आए थे। बोले-'आनंद कहाँ है?'

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