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नीलकण्ठ

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :431
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9707
आईएसबीएन :9781613013441

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गुलशन नन्दा का एक और रोमांटिक उपन्यास

थोड़ी देर में रायसाहब, मालकिन और कुछ और मित्र भी आ पहुँचे और उसी कमरे में बैठकर प्रतीक्षा करने लगे। कंपनी के जनरल मैनेजर ने जब बेला से घटना का हाल पूछा तो वह रोने लगी और कुछ न कह सकी।

तीन घंटे लगातार प्रयत्न करने के बाद आनंद को पट्टियाँ बाँधी गई और उसकी टांग को पलस्तर में बंद कर दिया। डॉक्टरों के कहने पर बेला के सिवा सब मिलने वालों को लौटा दिया गया।

रात का अंधकार खिड़कियों से झांक रहा था। नर्स ने कमरे में प्रवेश करते ही बत्ती जला दी। उजाला होते ही आनंद के पास बैठी बेला ने उदास चेहरा ऊपर उठाया। आनंद अभी तक सो रहा था। नर्स ने दवा का प्याला मेज पर रख दिया और धीमे स्वर में बेला से कहने लगी- 'नींद खुलते ही दे देना।'

बेला ने सिर हिलाया और आनंद की ओर देखने लगी जो आराम से नींद में डूबा हुआ था। वह एक अज्ञात भय से डर रही थी। उसी का हठ इस घटना का कारण बना था। वह कुछ ऐसी ही उलझनों में खोई हुई थी कि बाहर द्वार पर आहट हुईं। पर्दा उठा और सफेद साड़ी पहने संध्या ने दबे पांव कमरे में प्रवेश किया। उसे देखते ही बेला उठ खड़ी हुई और दबी आवाज से बोली-’दीदी-’ संध्या ने होंठों पर उंगली रखते हुए चुप रहने का संकेत किया और उसे थोड़ी दूर ले जाकर पूछने लगी-

'यह सब क्योंकर हुआ?'

भाग्य का चक्कर-'बेला की आँखों में आंसू टपक पड़े। संध्या ने अधिक पूछताछ उचित न समझी और उसे ढांढस बंधाते हुए बोली - तुम आराम करो, मैं यहाँ बैठती हूँ।'

'नहीं दीदी - अभी होश आते ही यह दवा-’

'मैं पिला दूँगी - जाओ थोड़ा आराम कर लो।'

संध्या के बहुत कहने पर वह सामने की आराम कुर्सी पर बैठ गई और टकटकी बांधकर संध्या को देखने लगी जो धुंधली रोशनी में सफेद वस्त्र पहने शांति की देवी लग रही थी।

नींद में लेटे-लेटे आनंद ने हरकत की तो संध्या झट से उसके पास आकर खड़ी हो गई। बेला भी कुर्सी से उठकर आ गई। जैसे ही आनंद ने आँखें खोलीं बेला हटकर अंधेरे में हो गई। अंदर से उसका मन धक्-धक् करने लगा। उसने संध्या को दवाई पिलाने का संकेत किया परंतु उसने देखा कि संध्या के हाथ भी कांप रहे थे। शीघ्र ही संध्या ने अपने पर अधिकार पा लिया और आनंद के सामने जाकर धीरे से बोली-’मैं हूँ संध्या-’

'तुम-’ उसने विस्मित दृष्टि को कमरे की दीवारों पर दौड़ाया और कठिनाई से होंठ खोलते हुए बोला-'मैं कहाँ हूँ?'

'हमारे पास-’

'नीलकंठ में-’ उसके स्वर में कंपन था।

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