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नीलकण्ठ

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :431
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9707
आईएसबीएन :9781613013441

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गुलशन नन्दा का एक और रोमांटिक उपन्यास

आनंद ने हाथ बढ़ाकर रोटी का ग्रास उसके मुँह में ठूंस दिया। बेला खिलखिला उठी और उसने अपने हाथों से एक ग्रास आनंद के मुँह में डाल दिया।

दूसरे दिन इतवार था। इसलिए सवेरे ही दोनों तैयार होकर कंपनी के दफ्तर जा पहुँचे परंतु दुर्भाग्य से मैनेजर अपनी गाड़ी लेकर रात ही कहीं चला गया था। आनंद उलझन में पड़ गया। उसे विश्वास था कि बेला इसी बहाने संध्या के यहाँ जाने से इंकार कर देगी। फासला बहुत था और पूरे दिन के लिए टैक्सी ले जाना भी कठिन था। वह इसी समस्या को सुलझाने की सोच रहा था कि बेला बोली-

'शो-रूम में इतनी गाड़ियाँ जो रखी हैं - उनमें से एक क्यों नहीं ले चलते?' 'ये सब नई हैं बाहर नहीं ले जाई जा सकतीं।'

'तो क्या हुआ - एक दिन में कोई घिस थोड़े ही जाएँगी।'

'नहीं बेला, किसी को ट्राई के लिए देनी हो तो थोड़ी दूर ले भी जाएं - पर हमें तो शहर से बाहर जाना है।'

'कौन देखता है।'

'मेरी आत्मा।'

'सुला दो थोड़ी देर के लिए अपनी इस आत्मा को - रंग में भंग डालने से लाभ - आप बीसवीं शताब्दी में महाभारत के काल की बातें करते हैं - इस नई गाड़ी से जाने से हमारी कितनी शान होगी।'

आखिर आनंद को झुकना ही पड़ा। आज पहली बार उसने बेला के लिए अपने जीवन के नियमों को भी बदल डाला।

कंपनी के रजिस्टर में लिख दिया कि ब्यूक का नया मॉडल भूपाल को दिखाना है और गाड़ी को निकालकर बेला को आगे बैठने का संकेत किया। आज वह नई गाड़ी में बैठकर ऐसा अनुभव कर रही थी मानों कोई महारानी अपने महाराज के साथ प्रजा को दर्शन देने निकली हो। जहाँ आनंद का मन नियम को तोड़कर अप्रसन्न था वहाँ बेला का मन हर्ष से फूला न समाता था कि आज आनंद ने उसके लिए अपना जीवन मार्ग बदल डाला।

संध्या की बस्ती में आज एक अच्छी-खासी भीड़ थी - बेला के व्याह से भी कहीं अधिक रौनक थी। इस अवसर पर मिलने-जुलने और सगे-संबंधियों के अतिरिक्त शहर के चुने हुए व्यक्ति भी सम्मिलित थे। संध्या उत्साह और उल्लास से भरपूर कभी-कभी दृष्टि उठाकर आनंद की ओर देख लेती मानों उससे पूछ रही हो, क्यों कैसा रहा मेरा ब्याह? उधर बेला को यह भीड़ अच्छी न लग रही थी और वह सबसे अलग एक कोने में जा बैठी।

फीता कटा, तालियों का शोर उठा और लोग कारखाने के भीतर प्रवेश करने लगे। हर ओर बड़ी-बड़ी मशीनों के साथ मजदूर एक जैसी वर्दी पहने खड़े थे। भीड़ के आगे-आगे नन्हें पाशा उजले कपड़ों में लड़खड़ाती हुई टांग को खींचते बढ़ रहा था। जिस मशीनमैन को वह संकेत करता मशीन चलने लग जाती और फिर वह लोगों को उस मशीन का काम और उसके चलने का ढंग समझाता।

मशीन का निरीक्षण करते हुए सब नीलकंठ पर जा रुके - सबने सामने दीवार पर खुदा हुआ यह शब्द दोहराया। आनंद को लगा मानों कोई जीवन के पन्ने पलटकर बीती हुई बातों को दोहरा रहा हो।

देखने वाले इस सादी और सुंदर कुटिया की प्रशंसा कर रहे थे।

'कैसी लगी यह कुटिया', संध्या ने आनंद को संबोधित करते हुए पूछा। अपने विचारों में खोया वह चौंक-सा उठा, क्षणभर के लिए तो उसके माथे पर पसीने के दो-एक कतरे झलक आए, पर सहसा ही वह अपने पर अधिकार पाते हुए बोला- 'सुंदर बहुत सुंदर'

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