ई-पुस्तकें >> नीलकण्ठ नीलकण्ठगुलशन नन्दा
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गुलशन नन्दा का एक और रोमांटिक उपन्यास
'मिस्टर हुमायूं के साथ पिकनिक का प्रोग्राम जो बनाया था।'
'उसे देख लेंगे', आनंद ने असावधानी से कहा और संध्या की ओर देखकर मुस्कराने लगा - जैसे कह रहा हो कि तुम्हारा अधिकार पहला है हम अवश्य आएँगे। संध्या उसके मन की बात भांप गई और बेला के कंधों पर हाथ फेरते हुए बोली -
'देखिए, बेला की बात पहले मानिएगा। हमारा प्रोग्राम तो होकर ही रहेगा, कहीं मेरी लाडली बहन के प्रोग्राम में बाधा न पड़ जाए।'
संध्या की बात में व्यंग्य था। जिसने एक नश्तर सा बेला के मन में चुभो दिया और वह उठकर खिड़की से बाहर झांकने लगी। उसी समय उसके कानों में संध्या और आनंद की हंसी की आवाज गूंजी। बेला को अनुभव हुआ जैसे वे उसकी बेबसी पर हंस रहे हों। वह मन-ही-मन तिलमिला उठी।
वह दिन भी आ पहुँचा। संध्या ने टेलीफोन पर यह याद दिलाया और आनंद ने आने का वचन दिया। संध्या चाहती थी कि वह स्वयं आकर देखे कि उजड़ जाने के पश्चात् उसके मन से कितना खरा कुंदन निकला है। आनंद भी उसकी बात न टाल सका जैसे वह उसके निराश मन को अपने हाथों से कोई ठेस न पहुँचाना चाहता था।
जब उसने बेला को भी दूसरे दिन संध्य्रा के यहाँ जाने का आदेश सुनाया तो वह सिटपिटाकर बोली-
'तो हुमायूं साहब की पिकनिक का क्या होगा?'
'विवश हूँ। यह दिन तो जीवन में एक ही है, पिकनिक तो किसी और दिन भी हो सकती है।'
'तो प्रोग्राम बनाना ही न था।'
'मुझे क्या पता था - परंतु बेला-'
'क्या?'
'संध्या की ओर से तुम्हें यह मिथ्या संदेह कैसा है?'
'मुझे क्यों होने लगा - मेरी भी तो वह बहन है - पर छोड़िए इन बातों को - आप जहाँ चाहे जा सकते हैं।'
'और तुम?'
'मैं कभी नहीं जाऊँगी।'
आनंद उसकी इस विमुखता पर हंसकर चुप हो गया। वह जानता था कि थोड़े समय पश्चात् उसका क्रोध ढल गया और वह स्वयं उसके संग चलने को तैयार हो जाएगी परंतु हुआ उसके विपरीत - विवाह के पश्चात् आज पहली बार बेला ने रूठ जाने की ठान ली। रात उसने खाना भी न खाया और चुपचाप बिस्तर में लेटकर पढ़ती रही।
रात को सोते समय आनंद ने पूछा-'आज कौन-सा दिन है?'
'सामने कलेण्डर लटक रहा है।'
'ओह आई सी-’
उसी समय उनका नौकर विष्णु पानी की सुराही रखने भीतर आया तो आनंद ने उसे पुकारा -
'विष्णु!'
'जी सरकार!'
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