ई-पुस्तकें >> नीलकण्ठ नीलकण्ठगुलशन नन्दा
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गुलशन नन्दा का एक और रोमांटिक उपन्यास
तेरह
जीवन के सुंदर क्षण यों बीतने लगे जैसे धरती की चाल के साथ ऋतुएं - आनंद और बेला का जीवन भी एक नए दौर में भागा जा रहा है। वह अपने छोटे से घर में सब रगीनियां भरने का दिन-रात प्रयत्न करती जिससे आनंद को उसके निकट कोई अभाव अनुभव न होने पाए - वह भूल से कभी ऐसा न सोच सके कि बेला में कोई ऐसी कमी है जिसकी पूर्ति संध्या ही कर सकती है।
इन सब सुविधाओं के होते हुए भी आनंद कभी-कभी बहुत उदास हो जाता और अकेला बैठा घंटों सोचता रहता प्राय: ऐसा तभी होता है जब कभी भूले से बातों में संध्या का वर्णन आ जाता।
बेला ने इसी विचार को दूर रखने के लिए रायसाहब के यहाँ आना भी छोड़ रखा था। वह दिन-रात कोई ऐसी विधि सोचती रहती जो संध्या और आनंद के मध्य ऐसी दीवार खड़ी कर दे कि वह उसे सदा के लिए भुला दे। वह आनंद की तड़प को भली प्रकार समझ रही थी। जबसे उसे इस बात का ज्ञान हुआ था कि बेला ने झूठ ही उससे कह दिया था कि वह उसके बच्चे की माँ बनने वाली है, वह अधिक बेचैन रहने लगा। बेला ने लाख अपनी सच्चाई का प्रमाण देना चाहा पर वह वास्तविकता को न छिपा सकी।
आनंद को बेला की अदाओं पर प्राय: झुकना पड़ता। वह इस लड़खड़ाती बेचैन जवानी का ढंग जानती थी। दफ्तर के बाद शाम के समय को और रंगीन बनाने के लिए उसने समाज के बड़े लोगों से मेल-जोल बढ़ाने के लिए परामर्श दिया। पहले तो आनंद न माना परंतु अंत में बेला अपनी योजना में सफल हो गई। आनंद इस छोटी सी हार को अनुभव न कर पाया पर बेला के लिए यह बहुत बड़ी जीत थी।
मिलने वालों में उसका पहला निशाना मिस्टर हुमायूं था जो आनंद का मित्र होने के अतिरिक्त एक विनोदप्रिय व्यक्ति भी था जो इस भाग्यवान दम्पति को देखकर कभी-कभी ईर्ष्या से कह उठता- 'मिस्टर आनंद! कितने खुशनसीब हो कि तुम्हें बेला जैसा जीवनसाथी मिला।'
हुमायूं प्राय: उन्हें फिल्मी जगत में ले जाता। यहाँ थोड़े ही दिनों में उनके कई मित्र बन गए।
हर संगत, हर सभा में बेला आनंद के साथ छाया की भांति लगी रहती, उसे कहीं भी डगमगाने न देती। आनंद भी दिन-ब-दिन उसका दीवाना बना हुआ जा रहा था। वह समझती थी कि यह दीवानापन धीरे-धीरे आनंद को उसी का बना देगा। इसी प्यार और प्रेम-भाव में कभी उसे भूल जाता तो वह उससे रूठ भी जाती। वह झुंझलाता, तर्क करता और अंत में हार कर झुक जाता। बेला उसकी हार देखकर मुस्करा पड़ती। वह उसे प्रेम की बेड़ियों में ऐसे जकड़ लेना चाहती थी कि वह कभी भागने का साहस न कर सके। उनकी यह दशा देखकर कभी-कभी उसे संध्या के उस वाक्य पर हंसी आ जाती 'देखना बड़ा चंचल मन पाया है, कहीं तुम्हें छोड़कर उड़ न जाएँ।'
एक सायंकाल जब दोनों रेनु के जन्मदिन पर रायसाहब के यहाँ गए थे तो संध्या भी वहाँ बैठी थी। संध्या ने दोनों को अपने कारखाने के खुलने के अवसर पर निमंत्रण दिया। आनंद ने स्वीकार करते हुए कहा-'प्रयत्न करूँगा।'
'प्रयत्न कैसा, आप लोगों को अवश्य आना होगा।'
'बहुत अच्छा, यदि तुम्हारी यही प्रसन्नता है तो हम अवश्य आएँगे।' 'परंतु उसी दिन तो हमें बाहर जाना है', बेला बात काटते हुए बोली।
'कहाँ?'
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