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नीलकण्ठ

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :431
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9707
आईएसबीएन :9781613013441

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गुलशन नन्दा का एक और रोमांटिक उपन्यास

आनंद भी उसके हाव-भाव में खोया उस रसपूर्ण सुंदर दुनिया की ओर खिंचता जाता। संध्या के साथ बीते हुए दिन उसे चंद अधूरे सपनों के समान लगे जिन्हें मन-बहलाव के लिए कभी-कभी याद कर लिया करता था। वह सपनों को अधूरा क्यों छोड़ दे - क्यों न उनकी डोरी बेला से मिला दे - संध्या तो एक सपना थी जो समाप्त हो गई और बेला एक वास्तविकता है जो भाग्य ने स्वयं उसके जीवन को रसमय बनाने के लिए भेज दी हो।

उन्हीं पहाड़ियों पर यौवन की तरंगों पर नाचते-कूदते उनकी भेंट बम्बई की एक प्रसिद्ध फिल्म कंपनी के मालिक से हो गई जो उन दिनों अपनी पार्टी के साथ किसी फिल्म की शूटिंग के लिए वहाँ आया था। उनकी भेंट आर्ट डायरेक्टर मिस्टर हुमायूं द्वारा हुई जो फिल्म जगत का माना हुआ मेकअपमैन था। उसका जीवन लोगों को नए-नए रूपों और ढंगों में प्रस्तुत करते बीत चुका था। दिल्लगी-ही-दिल्लगी में हुमायूं ने बेला से कहा कि उसका चेहरा फोटोग्राफिक ऐंग्लज के लिए बड़ा अच्छा था। बेला अपनी इस प्रशंसा पर फूली न समाई और उसी मुद्रा में बोली- 'क्या यह भी संभव हो सकता है कि आप हम दोनों की तस्वीर इस फिल्म में उतार लें।'

'क्यों नहीं?' यह कहते हुए हुमायूं ने उन्हें अलग-अलग खड़ा कर दिया और थोड़े ही समय में उन्हें भी शूटिंग के उस दृश्य में ले लिया जिसमें बहुत से आदमी पिकनिक करते हुए दिखाए गए थे। आनंद के विवाह के पश्चात् हुमायूं की यह उससे पहली भेंट थी और उसने दोनों को रात के खाने पर आमंत्रित किया।

खाने पर फिल्मी जगत के और व्यक्ति भी सम्मिलित थे। बेला का सौंदर्य, उसकी चंचलता और उसकी बातें सबको प्रभावित कर रही थीं। बातों-ही-बातों में बेला ने बताया कि उसे कॉलेज के दिनों में ड्रामे खेलने का कितना चाव था। उसकी बातों पर सबसे अधिक सेठ मखनलाल मोहित हुए जो कंपनी के मालिक थे। सेठजी ने 'अपनी दुकान' फिल्म के लिए बेला को हीरोईन का पार्ट पेश किया।

'नहीं - क्षमा कीजिए - बेला को यह जीवन बिल्कुल पसंद नहीं' झट से आनंद कह उठा।

बेला आनंद की इस जल्दबाजी पर उसकी ओर देखने लगी और बातचीत का तांता जारी करने के लिए बोली- 'आप ठीक कहते हैं - हम घर-गृहस्थी की जंजीरों में जकड़ी हुई स्त्रियों के लिए वही तो स्टेज चाहिए जहाँ हम अपने जीवन को ऊँचा उठा सकें।'

जब खाने के बाद दोनों अपने ठिकाने पर लौटे तो बेला से न रहा गया और अप्रसन्नता प्रकट करते हुए बोली- 'सेठ मखनलाल की बात में बुरा मानने वाला क्या था कि आपने उसे बीच में ही टोक दिया।'

'बेला! तुम नहीं जानतीं इन फिल्मी सेठों को - फिल्म कांट्रेक्ट तो यह जेब में उठाए घूमते हैं - जहाँ कोई सुंदर मुखड़ा देखा झट दांत निकालकर सामने रख दिया।'

'ओह - तब हम भी उन सुंदर मुखड़ों की गिनती में आते हैं-' बेला ने घमंड से गर्दन उठाते हुए कहा।

आनंद उसका यह भाव देख मुस्कुरा पड़ा।

अवकाश के दिन यों उड़ते गए जैसे हवा के साथ डाली के फूल। बम्बई लौटने से पहले आनंद को खंडाला में अपने माता-पिता से मिलने आना था। इसलिए वे एक दिन पूर्व ही वहाँ से खंडाला चले आए।

ससुराल वालों में मिल-जुलकर रहने का बेला का यह पहला ही अवसर था। सारे घराने में उसे कोई भी अच्छा न लगा। जितना आनंद नए विचारों का था उतने ही उसके घरवाले रूढ़िवादी थे।

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