ई-पुस्तकें >> नीलकण्ठ नीलकण्ठगुलशन नन्दा
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गुलशन नन्दा का एक और रोमांटिक उपन्यास
घर में श्वसुर और सास के अतिरिक्त उसकी एक ननद और देवर भी था। ननद पंजाब में किसी पुलिस इंस्पेक्टर से व्याही थी और देवर देवलाली में मिशन स्कूल में पढ़ता था। व्याह के अवसर पर सब इकट्ठे थे और बड़े चाव से भाभी की प्रतीक्षा कर रहे थे। बेला ने पहले ही दिन से अपने आपको एक अलग कमरे में बंद रखा। वह किसी से भी अधिक लगाव बढ़ाना न चाहती थी। वह तो हर समय अपने आसपास आनंद को ही देखना चाहती थी और उससे भी यह आशा रखती थी कि वह सबको छोड़कर उसी के पांव में पड़ा प्रेम की भिक्षा मांगता रहे।
नई-नवेली दुल्हन थी इसलिए उसका यह ढंग किसी को बुरा न लगा। सब यही समझे कि शायद नए स्थान पर आकर उदास हो गई होगी।
छुट्टी समाप्त होते ही दोनों बम्बई लौट आए। आनंद को अपने फ्लैट में कुछ परिवर्तन करना था इसलिए वह रायसाहब के यहाँ ही ठहरा।
दोनों को दोबारा देखकर घर में फिर चहल-पहल हो गई। घर आकर बेला की दृष्टि ने सबसे पहले यह जानना चाहा कि कहीं संध्या तो वहाँ नहीं और उसे यह जानकर प्रसन्नता हुई कि वह वहाँ नहीं है। वास्तविक प्रसन्नता तो उसे तब हुई जब उसने देखा कि आनंद ने पूरे दिन संध्या के विषय में कुछ न पूछा और जब कभी उसका नाम आया तो उसने ध्यान नहीं दिया।
बेला को न जाने क्यों संध्या से हर समय भय-सा लगा रहता, जैसे चोर को पुलिस वाले से - कई बार तो वह अपने आपको चोर ही अनुभव करती - इसमें झूठ ही क्या था - उसने भी तो संध्या का प्यार चुराया था - धोखे से, छल-कपट से - ये बातें सोच प्राय: वह कांप उठती।
दूसरे दिन जब आनंद दफ्तर चला गया तो बेला ने संध्या के विषय में घरवालों से कुछ जानने के लिए सोचा परंतु साहस न कर सकी, उसका नाम भी होंठों पर लाते हुए उसे भय लगता - आखिर साहस बटोरकर उसने रेनु से पूछ ही लिया।
'कभी-कभी आ जाती है' इससे अधिक रेनु कुछ न बता सकी।
बातों-ही-बातों में माँ ने संध्या का नाम लिया तो बेला ने उत्साह दिखाते हुए पूछा- 'कहाँ है वह अब मम्मी?'
'नीलकंठ में।'
नीलकंठ का नाम सुनते ही वह सोच में पड़ गई। ऐसा ही नाम उस लॉकेट पर खुदा था जो आनंद ने उसे उपहार में दिया था। दो क्षण मौन रहने के पश्चात् वह फिर बोली- 'नीलकंठ? यह क्या है मम्मी?'
'एक छोटी-सी बस्ती है जो तुम्हारी दीदी ने गरीबों के लिए बनाई है - सुना है कोई बड़ा कारखाना लगा रही है।'
'अच्छा।'
अपनी मानसिक उलझनों को इस एक शब्द में समेटते हुए वह चुप हो गई। दूसरे दिन वह अकेले ही खोज लगाती वहाँ जा पहुँची जहाँ संध्या ने नीलकंठ की बस्ती बसाई थी। वह छोटी-सी बस्ती बेला के अनुमान से कहीं बड़ी थी। घाटकोपर से गुजरती आगरा रोड के किनारे एक खुले मैदान को घेरकर वह अपने सपने को वास्तविकता का रूप दे रही थी। कितने ही मजदूर अधिक परिश्रम करते हुए उसे बना रहे थे।
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