ई-पुस्तकें >> नीलकण्ठ नीलकण्ठगुलशन नन्दा
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गुलशन नन्दा का एक और रोमांटिक उपन्यास
'आप जैसे डॉक्टर हों तो पीड़ा क्यों नहीं बढ़ेगी?'
'कैसी पीड़ा?' आनंद ने उसकी बांह को मलते हुए पूछा।
'मीठी-मीठी' वह मुस्कराते हुए बोली 1
'कहाँ?' आनंद ने बनते हुए पूछा।
'दिल में।'
'लाओ तो कम कर दूँ।' आनंद ने अपना हाथ उसके जलते हुए सीने पर रख दिया और उसके हृदय की धड़कन का अनुभव करने लगा - धड़कन की हर ताल उसकी नसों में बिजली सी भरने लगी।
'दिल की धड़कन जांच रहे हैं क्या?'
'तुम्हारी पीड़ा बाँट रहा हूँ - ऐसा अनुभव होता है वह पीड़ा बिजली बनकर मेरे दिल में भी उतर रही है।'
'लाओ देखूँ तो' - बेला ने अपना हाथ आनंद के दिल पर रखते हुए कहा - आनंद उसके कुछ और समीप हो गया - दोनों यह बच्चों का-सा खेल देखकर मुस्कराने लगे। आनंद ने उसे अपनी बाहों में जकड़ लिया - बेला भी उसकी चौड़ी और खुली छाती से लिपटकर अपनी पीड़ा को कम करने लगी। दोनों के शरीर में ज्वाला-सी धधक रही थी जिसे बुझाने के लिए वह अंगारों में ठंडक ढूंढ रहे थे।
दोनों को तब सुध आई जब पास ही खड़े एक बालक चरवाहे ने घोड़े की दुम पकड़कर झटके से उसके बालू खीचें। घोड़ा बिदककर जोर से हिनहिनाया और दोनों चौंककर उठ बैठे। लड़का खिलखिलाकर हंसता हुआ नीचे ढलान की ओर भागने लगा।
दोनों मुस्कराते हुए उठे और अपने-अपने घोड़े की बाग संभाल पैदल ही उन टीलों पर जाने लगे। झरने की आवाज समीप होती जा रही थी 1
थोड़े ही समय में वह उस ऊँचे स्थान पर जा खड़े हुए जहाँ से आस-पास का सारा दृश्य स्पष्ट दिखाई दे रहा था - दूर दृष्टि तक फैली हुई हरियाली आँखों में ठंडक भर रही थी। ऊँचाई से गिरता हुआ जल झरने का रूप धारण करके पिघली हुई चांदी की एक मोटी तह ज्ञात होता था।
'कितना सुंदर दृश्य है, मन चाहता है इस बहती चांदी में कूद पड़ूँ।' बेला ने मौन तोड़ते हुए कहा।
'न न ऐसा न करना-’ आनंद झट बोला।
'खो ही तो जाऊँगी, नीचे आकर ढूंढ निकालना।'
'नहीं बेला - यह इतना सरल न होगा - स्त्री भी इस झरने के समान ऊँचाई पर ही अच्छी लगती है, एक बार नीचे गिर जाने से वह अपना सब कुछ खो बैठती है - जैसे यह जल - देखो तो नीचे गिरते ही छोटी-छोटी नालियों में बंट गया और बस्ती का कूड़ा अपने साथ ले जाएगा।'
बेला आनंद की दार्शनिक बात सुनकर चुप हो गई। उसे ऐसे समय में यह तुलना अच्छी न लगी, परंतु उसे जतलाकर प्रसन्नता को फीका करना उसने उचित न समझा और उसे हाथ से खींचते हुए टीले के दूसरी ओर ले जाने लगी - वह इस रमणीक दृश्य की भांति आनंद के मस्तिष्क पर छा जाना चाहती थी। वह कभी भी आनंद के मन में संध्या या किसी और का विचार न सह सकती थी। वह यह चाहती थी कि उसकी हर तड़प, हर याद और मुस्कुराहट के पीछे केवल उसकी छवि हो।
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