ई-पुस्तकें >> नीलकण्ठ नीलकण्ठगुलशन नन्दा
|
6 पाठकों को प्रिय 375 पाठक हैं |
गुलशन नन्दा का एक और रोमांटिक उपन्यास
आहट हुई और वह संभल गया। बेला चाय का प्याला लिए उसकी ओर बढ़ रही थी। वह अपने विचारों में खोया-खोया-सा उसे देखने लगा।
'किस दुनिया में खो गए', बेला पास आते हुए बोली।
'नहीं तो - सोच रहा था यह चाय से उठता हुआ धुआं तुम्हारे मुखड़े को चूमकर कहाँ लुप्त हो जाता है।'
'ओह तो आप कविता करने लगे।'
'मेरी कविता तो अब तुम हो जिसे पढ़ने का प्रयत्न कर रहा हूँ।' आनंद ने चाय का प्याला पकड़ते हुए कहा।
बेला उसके पास बैठ गई और ध्यानपूर्वक उसके चेहरे को निहारने लगी जिस पर सूर्य की किरणें खेल रही थीं।
थोड़े समय पश्चात् दोनों तैयार होकर निकले। आज उनका घुड़सवारी का प्रोग्राम था। दोनों सवार होकर पर्वतों में जाती एक पगडंडी पर हो लिए... घुड़सवारी में दोनों अनाड़ी थे।
घोड़े सड़क पर पांव-से-पांव मिलाकर चले जा रहे थे मानों फौज के दो सिपाही बढ़े जा रहे हों। ज्यों-ज्यों घोड़ों की चाल बढ़ती उनके दिल की धड़कन तेज हो जाती।
चलते-चलते बेला कुछ गुनगुनाने लगती - उसका हर भाव आनंद के अतृप्त भाव की कसक को बढ़ा देता - वह लपककर उसका हाथ पकड़ने का प्रयत्न करता तो झपककर उसका हाथ परे कर देती और घोड़े को आगे बढ़ा ले जाती। उसके बढ़ते हुए उत्साह में उसे एक आनंद अनुभव होता - यह भूख आनंद को उसके लिए पागल बनाए रखेगी और वास्तव में आनंद के लिए इस प्यार की अतृप्ति में भी आनंद था - उसके कान बेला की मधुर तान का रसपान कर रहे थे - यह जीवन, यह यौवन, यह उल्लास फिर कहाँ?
बेला के घोड़े ने एड़ियों पर उछलते हुए हिनहिनाना आरंभ कर दिया और सरपट भागने लगा। संतुलन बिगड़ जाने से बेला नीचे लटकने लगी। उसकी चीख-पुकार सुनकर आनंद खिलखिलाकर हंसने लगा और अपने घोड़े को उसके पीछे डाल दिया।
कुछ दूर जाकर घोड़े ने बेला को जमीन पर फेंक दिया और स्वयं गर्दन मोड़कर दूसरे घोड़े को देखने लगा। आनंद ने झट से बाग खींचा और उछलकर अपने घोड़े से नीचे उतर आया।
धरती पर बेला पीड़ा से कराह रही थी। उसकी बांह पर चोट आ गई थी और वह लहू के कतरे ब्लास्टिंग-पेपर की भांति उसके खिंचे तंग ब्लाउज पर फैल गए थे। आनंद ने उसका सिर उठाकर अपनी गोद में रख लिया और झट जेब से रुमाल निकालकर कसकर उसकी बांह पर बाँध दिया और उसके गले में बंधा रुमाल खोलकर जल लाने के लिए पास बहती नदी की ओर भागा। उसका यह उल्लास देखकर पीड़ा में कराहते हुए भी बेला के मन में गुदगुदी-सी होने लगी। उसे चोट की इतनी चिंता न थी जितनी की यह जानकर उसे प्रसन्नता हुई कि उसकी साधारण-सी चोट आनंद के लिए कितनी बड़ी चिंता का कारण बन गई।
आनंद के लौटते ही बेला गंभीर हो गई। उसने भीगा हुआ रुमाल चोट पर बांध दिया और माथे पर से पसीना पोंछते हुए पूछा-
'कहीं चोट अधिक तो नहीं आई?'
'चोट तो साधारण है परंतु पीड़ा न जाने क्यों बढ़ती जा रही है।'
'वह क्यों?'
|