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नीलकण्ठ

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :431
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9707
आईएसबीएन :9781613013441

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गुलशन नन्दा का एक और रोमांटिक उपन्यास


बारह

चिड़ियों के चहचहाने के साथ ही बेला की आँख खुल गई। उसने अपनी कोमल उंगलियों से पलकों को मसला - वातावरण में हर ओर सुगंध फैल रही थी - उसने एक लंबी साँस लेते हुए कमरे की छत की ओर देखा - कबूतरों का एक जोड़ा ऊपर बैठा गुटर-गूँ कर रहा था।

साथ के बिस्तर पर आनंद अभी तक सुख की नींद सो रहा था। उसने नाक सिकोड़कर मुस्कराते हुए देखा और अंगड़ाई लेकर बिस्तर से उठ बैठी।

बाहर की खिड़की खुलते ही किरणों ने कमरे की दीवारों का चुंबन लिया। बेला ने झांककर देखा तो प्राकृतिक दृश्य से उसके मन में गुदगुदी-सी होने लगी। ऊँचे पर्वत, सुंदर झीलें, झरनों से झरता हुआ हर ओर हरियावल का ठाठें मारता हुआ समुद्र - उसके जवान हृदय ने अंगड़ाई ली - उसने फिर मुड़कर आनंद को देखा - वह अभी तक सो रहा था - शायद उसे आज बड़े समय पश्चात् ऐसी निद्रा मिली थी।

द्वार पर आहट हुई और नौकर चाय की ट्रे लिए भीतर आया। बेला ने होंठों पर उंगली रखते हुए चुप रहने का संकेत किया और प्याला लेकर दबे पांव आनंद के बिस्तर पर बैठ गई। वह गहरी निद्रा में डूबा हुआ था। बेला धीरे-धीरे उसके मुख पर फूंकें मारने लगी। गर्म-गर्म साँस से दो-एक बार आनंद ने आँखें झपकीं - जैसे ही उसने बेला को अपने निकट बैठे देखा झट से ओंखें बंद कर लीं, मानों उसने उसे देखा ही न था।

बेला झुकी और उसके बालों से खेलने लगी। आनंद ने वैसे ही नींद का बहाना करते हुए हाथ बाहर निकालकर उसे कमर से पकड़ लिया और उसे सीने से लगा लिया। बेला की सिहरन एक मधुर आनंद में परिवर्तित हो गई। उसने अपने शरीर को आनंद के हाथों में ढीला छोड़ दिया। आनंद के होंठों का उसके कोमल कपोलों से खिलवाड़ उसके मन में गुदगुदी करने लगा - बेला ने आँखें बंद कर लीं।

'बेला!' आनंद के होंठों ने उसके गालों को गुदगुदाते हुए कहा।

'जी!'

'दोनों इस मंजिल तक आ पहुँचे - इसे तुम्हारी जीत समझें या अपनी हार... ' 'मेरी जीत...'

'वह कैसे?'

'आप तो भटके हुए यात्री थे जिसे अपनी मंजिल का ज्ञान न था।'

'नहीं बेला, ऐसा नहीं - मंजिल भी सामने थी और रास्ता भी साफ।'

'तो-’ 'चलते-चलते एक सहयात्री से जान-पहचान हो गई जिसने किसी और मंजिल का रास्ता दिखा दिया तो पहली से कहीं आकर्षक, सुंदर और मोहक थी।' 'सच मेरे देवता?' बेला ने अपने गाल जोर से आनंद के होंठों से भींचते हुए पूछा।

'हाँ बेला - तुम में कुछ अछूती मोहिनी थी - हर भाव में एक आकर्षण - हर बात मन में उतर जाने वाली।'

अचानक बेला को चाय का ध्यान आया जो साइड-टेबल पर रखी ठंडी हो चुकी थी। वह प्याला उठाकर बाहर चली गई।

आनंद तकिए का सहारा लेकर बिस्तर पर बैठ गया और खुली हुई खिड़की में से पहाड़ियों की चोटियों को देखने लगा। ऊँचाई से गिरते हुए झरने की आवाज स्पष्ट सुनाई दे रही थी - यह स्थान उन्होंने मधुमास के लिए चुना था। उसकी बेला भी तो वैसा ही एक झरना थी - यौवन का सुंदर झरना - उसके हाव-भाव में शराफत थी - उसकी गति में उमड़ती मस्ती - उसकी बातों में हलचल - नदी और झरना - संध्या और बेला।

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