ई-पुस्तकें >> नीलकण्ठ नीलकण्ठगुलशन नन्दा
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गुलशन नन्दा का एक और रोमांटिक उपन्यास
'कहीं उस युद्ध के दो सिपाहियों की-सी बात न करना।'
'कैसी बात-’ आनंद से पूछा।
रणभूमि में दो सिपाही भागे जा रहे थे। उनमें से एक घायल हो गया। दूसरे ने उसे एक घने पेड़ के नीचे लिटा दिया और दिलासा देते हुए बोला-'मुझे जाने दो, जाते ही पहला काम यह करूँगा कि डाँक्टर और गाड़ी लाऊँ।'
'फिर क्या हुआ?'
'वह चला गया - उसकी सहायता को कोई न पहुँचा - यहाँ तक कि मृत्यु तक को उस पर तरस न आया।'
वे चले गए। रायसाहब और मालकिन भी भीतर चले गए। संध्या ने दूर तक बेला और आनंद की गाड़ी को जाते देखा और जब वह दृष्टि से ओझल हो गई तो एक गंभीर मुस्कान उसके होंठों पर खेल गई और वह स्वयं बोल उठी-'लो यह खेल भी समाप्त हुआ।'
'कौन-सा खेल?' पास खड़ी निशा ने पूछा।
'यह मुआ दिल और दर्द का खेल।'
'सच - कितनी अच्छी हो तुम-’
'इसलिए न कि दिल को पत्थर बना लिया है।'
निशा चुप हो गई जैसे उसने संध्या का उपहास उड़ाया हो। घर में हर ओर उदासी और चुप्पी छाई थी।
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