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नीलकण्ठ

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :431
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9707
आईएसबीएन :9781613013441

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गुलशन नन्दा का एक और रोमांटिक उपन्यास

आनंद और बेला आग के गिर्द फेरे ले रहे थे - तो क्या ये उसके अपने ही विचार थे - कल्पना थी जो उसे वहाँ ले गई - क्या उसने जागते हुए स्वप्न देखा था - वह स्वप्न में भी अपनी मानसिक निर्बलता को न छोड़ सकी - वे दोनों तो शहनाई के मधुर स्वर में जीवन की रंगीन यात्रा की तैयारी कर रहे थे - आंसुओं की एक और धारा उसकी आँखों से वह निकली, एक नया सोता उबल पड़ा। पौ फटते ही आकाश में चमकते हुए तारों को अपना मुँह छिपाना पड़ा - साथ ही संध्या के मन के अंधकार में चमकते हुए आकाश के कण मद्धिम हो गए - आँखों से बहती हुई जल-धारा सूख चुकी थी, रात के अंधकार के साथ चेहरे की रौनक जा चुकी थी - जाने कब तक मूर्ति बनी वह इस कमरे की दीवारों को देखती रही जहाँ उसने बचपन से जवानी के वर्ष व्यतीत किए थे। घरवाले उसे ढूँढते हुए कमरे में आ पहुँचे और संध्या को खींचकर नीचे ले जाने लगे।

'कहाँ जाना है मुझे?'

'नीचे बेला को विदा करने-’ उसकी चाची बोली।

'ओह - तो वह जा रही है - इतनी शीघ्र।'

'होश में तो हो संध्या', निशा ने उसे सहारा देते हुए कहा-'यह समय मूर्ति बनकर बैठने का नहीं, चलो सब तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहे हैं - और हाँ, चलते समय बेला की हथेली पर भी कुछ रखना होगा, वह तुम्हारी छोटी बहन है।' धीरे-धीरे पांव उठाती जब संध्या फाटक तक पहुँची तो सब रिश्तेदार और दूसरे मिलने वाले बेला को विदा कर रहे थे। डोली के लिए एक नई सुंदर कार सजाई गई थी। संध्या कार की दूसरी ओर के द्वार के पास खड़ी हो गई जहाँ कोई न था। लड़की को विदा करते हुए सबकी आँखों में आँसू थे - केवल संध्या की आँखें खुश्क थीं - वह एकांत में इतना रो चुकी थी कि अब उनमें जल की बूंद भी न थी।

भीतर झांकते हुए संध्या ने आनंद से कहा- 'ब्याह के दिन तो दुल्हन शरमाती है दूल्हा नहीं - फिर आप क्यों शरमा रहे हैं जीजाजी।'

'नहीं तो' आनंद ने आँखें ऊपर उठाकर घबराहट को मुस्कान में छिपाते हुए कहा। जीजाजी का शब्द उसने कुछ ऐसे ढंग से कहा था कि वह विषैले नाग के विष की भांति उसके भीतर में उतर गया।

बेला ने मुँह मोड़कर संध्या की ओर देखा और भर्राई हुई आवाज में बोली-’दीदी-’

'बेला! तुम जा रही हो - इन आँखों में पानी ही नहीं कि शगुन के दो-चार आँसू तुम्हारी जुदाई में अर्पण कर सकती - भगवान करे तुम दोनों सदा प्रसन्न और आबाद रहो।'

यह कहते हुए उसने चांदी की एक डिबिया बेला के हाथ में रख दी और बोली-

'मेरी छोटी सी भेंट - इसे सदा अपने पास रखना, कहीं खो न देना और हाँ ध्यान रखना बड़ा चंचल है इनका मन - एक छोटी सी भूल के कारण मैं इन्हें खो बैठी कहीं तुम्हारे हाथों से भी न निकल जाएँ।'

संध्या के ये शब्द उस समय आनंद को अच्छे न लगे परंतु उसके मन की गहराईयों में करवटें लेता हुआ दर्द वह अवश्य अनुभव कर पाया।

बेला बात का पहलू बदलते हुए झट बोली- 'दीदी, आओगी न हमारे घर-’

'क्यों नहीं - एक बार बुलाना तो - दौड़ी आऊँगी।'

'देखना तो - जाते ही पहला पत्र तुम्हें लिखूंगी।'

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