ई-पुस्तकें >> नीलकण्ठ नीलकण्ठगुलशन नन्दा
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गुलशन नन्दा का एक और रोमांटिक उपन्यास
ग्यारह
रायसाहब के घर आज ब्याह की तैयारियाँ हो रही थीं। बारात आने में तीन घंटे बाकी थे। रायसाहब बाहर लॉन में शामियाने लगवा रहे थे। उन्हें संध्या की प्रतीक्षा थी - भीतर से हर आने वाले व्यक्ति से वह थोड़े समय पश्चात् उसके विषय में पूछ लेते - बार-बार उनकी दृष्टि बाहर फाटक पर जाती। क्या उसका मन इतना बदल गया कि बहन के विवाह पर भी न आएगी।
निशा की गाड़ी में से संध्या बाहर निकली और सामने रायसाहब को देख उनकी ओर बढ़ी-
'पापा! मैं आ गई-’
संध्या ने बारीक स्वर में भोलेपन से कहा। इस स्वर में मिठास थी जो आज से वर्षो पहले रायसाहब उसके मुँह से सुना करते थे। उनके चिंतित मुख पर अब प्रसन्नता की मुस्कान थी। संध्या को गले लगाते हुए बोले-
'मैं तो डर गया था।'
'क्यों पापा?'
'सोचता था - शायद तुम न आओ-’
'यह कैसे हो सकता है - इस घर की प्रसन्नता तो मेरी प्रसन्नता है।'
स्नेह से पीठ थपथपाते हुए रायसाहब ने उसे भीतर जाने को कहा और स्वयं दालान में आकर नौकरों को समझाने लगे, उन्हें उसके आंतरिक सुख का पूरा आभास था, परंतु उसे व्यक्त न करना चाहते थे।
हर ओर चहल-पहल थी, लॉन में खुला शामियाना, तीन-चार सौ आदमियों का खाने-पीने का प्रबंध, गेट पर बिजली के कुमकुमों से लिखा 'स्वागतम', सड़क पर झंडियां और फानूश, बैंड वालों की धुनें - कितना सुहावना दृश्य था जो इंसान जीवन में हजार बार देखता है, परंतु उसके अपने जीवन में वह अवसर एक ही बार आता है - केवल एक बार।
संध्या के मन में इस दृश्य की कल्पना से सदा गुदगुदी सी होती - आज भी यह दृश्य देखकर उसके उदास मन में हल्की-सी गुदगुदी उठी, परंतु दूसरे क्षण ही किसी भय ने उस पर अपनी छाया डाल दी - जीवन के इस नाटक में हर अभिनेता, हर दृश्य पूर्ण था परंतु उसका अभिनय आज भाग्य ने बेला को दे दिया था, जब आनंद उसे व्याहने आएगा तो उसके मन पर क्या बीतेगी - क्या उसने पल-भर के लिए भी कभी अनुभव किया होगा कि उसकी डगमगाती नाव के लिए भावना के उमड़ते तूफान में वही एक किनारा है। यह सोचकर उसकी आँखों में आँसू छलक आए।
अंदर से ढोलक और गीतों की आवाज आई। वह उस भीड़ में सम्मिलित होने से डर रही थी। मन की जलन कम करने के लिए वह बाहर ही से पिछवाड़े की ओर हो ली।
एकांत में दीवार से लगकर उसने दालान में बने मंडप को देखा जो ब्याह के लिए सजा हुआ था। उसे लगा जैसे वह स्वयं चौकी पर दुल्हन बनी बैठी है, पंडित अग्नि में घी की आहुति देते हुए मंत्र पढ़ रहा है और पास में आनंद बैठा उसे देख रहा है - वह लजाई और सिमटी-सी नीचे रखे तेल के कटोरे में देखने लगी जिसमें आनंद का प्रतिबिम्ब पड़ रहा था। कितनी घबराहट थी उसके चेहरे पर। एकाएक किसी ने कटोरे में कुछ डाल दिया, झिलमिलाता हुआ आनंद का प्रतिबिम्ब गुम हो गया और उसका स्थान बेला ने ले लिया - संध्या के विचारों का तांता टूट गया. मंडप के पास खड़ी रेनु चिल्लाई-'दीदी' और साथ ही उसकी बांहों में आकर लिपट गई और उसे खींचते हुए साथ ले गई। कमरे में प्रवेश करते ही उसने बेला को देखा जो संकोच और लज्जा से सिमटी हुई सहेलियों के झुंड में घिरी बैठी थी। संध्या को देखते ही क्षण-भर के लिए बेला का रंग सफेद पड़ गया, उसे लगा जैसे उसने बलपूर्वक संध्या की कामनाओं का लहू करके अपनी मेहंदी रचाई हो।
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