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नीलकण्ठ

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :431
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9707
आईएसबीएन :9781613013441

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गुलशन नन्दा का एक और रोमांटिक उपन्यास

'कहो बेला, कैसा लग रहा है?' संध्या ने उसके निकट स्थान बनाते हुए पूछा।

'क्या दीदी?' बड़ी कठिनाई से वह कह पाई।

'यह ब्याह, दुल्हन बनना, यह श्रृंगार-'

'कुछ भी तो नहीं, मुझे तो कुछ नहीं लग रहा मन वैसे ही है - कोई विचित्र बात नहीं।'

'नहीं बेला - यह तुम्हारा मन नहीं कह रहा था, जबान कह रही है। सोचो तो कितनी बदल गई हो एक ही दिन में तुम।'

'मैं! वह फीकी हंसी हंसते हुए बोली-'दीदी! तुम्हारी दृष्टि बदल गई है।' 'तो कहाँ गई तुम्हारी चंचलता - अब आँखों में यह संकोच और लज्जा क्यों?' संध्या ने कोमल भाव में धीमे स्वर में कहा और पास रखा दर्पण उसके सामने रखती हुई बोली-'देख तो जिन नयनों की पुतलियों में सदा चैन और निद्रा रहती थी आज वहाँ प्रतीक्षा की व्याकुलता का वास है।'

'किसकी प्रतीक्षा, दीदी!' सामने खड़ी रेनु ने ऊँचे स्वर में पूछा। इस पर सब मिलकर खिलखिलाकर हंस पड़े, बेला भी हंसी रोक न सकी।

सांझ की घड़ियों ने जैसे ही रात के अंधेरे से मिलन किया कि बेला की कामनाओं की बारात को देखने के लिए आ पहुँची। चारों ओर सुंदर वस्त्रों में सुसज्जित लोग कोठी से बाहर बारात के स्वागत का प्रबंध करने लगे।

बाजे की झंकार पर सहेलियों ने बेला को खींचकर बाहर वाले बरामदे में ले जाना चाहा, परंतु उसने उनके संग जाने से इंकार कर दिया। बारात को देखने के लिए सब लड़कियाँ बेला और संध्या को अकेले छोड़कर बाहर भाग गईं। भीतर दोनों बैठीं बाजे की धुनें सुन रही थीं - दोनों के मन में एक ही कसक थी - परंतु कितना अंतर था दोनों के आंतरिक अनुभव का - एक के मन की धड़कन में भय के साथ उल्लास की तरंगें भी थीं और दूसरे के मन में धड़कन घटनाओं के उमड़ते हुए तूफानों में दबी थी।

'दूल्हा को देखने चलेगी?' मौन तोड़ते हुए संध्या ने बेला से कहा।

'ऊँ हूँ - क्या लेना है मुझे देखकर-’ उसने असावधानी से उत्तर दिया। 'पगली - ऐसा नहीं कहते - चल मेरे साथ-’

'दीदी! नहीं ऐसा भी क्या - भला मैंने कभी देखा नहीं उन्हें।'

'हाँ देखा है अवश्य - पर प्यार की दृष्टि से - दुल्हन बनकर कभी नहीं - चल आज चलकर उस दृष्टि से उनकी छवि देख।'

बेला के हठ को संध्या ने तोड़ ही दिया। संध्या ने बाल्कनी पर झुके लड़कियों के झुंड को एक ओर करने को हाथ बढ़ाया। उनमें से एक कह उठी--’अरी तू रोज ही देखेगी इन्हें - हमें तो देख लेने दे।'

इस पर सब खिलखिलाकर हंसने लगीं। बारात उसी समय कोठी के फाटक पर आकर रुकी और दोनों ओर से समधी फूलों के हार लिए बढ़े। जैसे ही आनंद दूल्हा बना चबूतरे के नीचे से गुजरा, ऊपर से सबने फूलों की वर्षा कर दी।

दूल्हे के स्वागत के लिए बेला को भी कमरे की दहलीज तक जाना पड़ा। संध्या उसे सहारा दिए वहाँ तक साथ लाई। बेला ने देखा उसकी पलकों में छिपे आंसू किसी भी समय बरस जाना चाहते थे। उसे लगा जैसे सहारा देने वाला स्वयं डूब रहा है। दुल्हन को सबने घेरे में ले लिया। आनंद के भारी पांव की दाब के साथ ही दोनों के मन की धड़कन तेज होती गई - दो नन्हें से दिल - जैसे पिंजरे की सलाखों से दो पक्षी टकरा रहे हों। एक भूख और प्यास से और दूसरा स्वतंत्रता के लिए।

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