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नीलकण्ठ

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :431
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9707
आईएसबीएन :9781613013441

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गुलशन नन्दा का एक और रोमांटिक उपन्यास

'शराब की बोतल में।'

'यह आप कह रही हैं?' सुंदर फीकी हंसी हंसते बोला।

'हाँ, मैं कह रही हूँ और ठीक कह रही हूँ - जब तुम्हारी रगों में लहू के स्थान पर इस तेजाब का संचालन होने लगेगा और तुम्हारा हृदय जलकर काला पत्थर हो जाएगा तब तुम्हें चैन और सुख मिल जाएगा, तुम मृत्यु में सुख खोजते हो' मृत्यु का शब्द सुनते ही सुंदर कांप सा गया। जैसे संध्या ने उसे स्वप्न से जगाकर कठोर वास्तविकता का दृश्य दिखा दिया हो। वह आश्चर्य में खड़ा निरुत्तर-सा उसे देखने लगा।

'डर क्यों गए? मृत्यु इतनी भयानक लगती है तो जीवन से प्यार करो - जीवन के उतार-चढ़ाव में आनंद अनुभव करो - मेरी भांति - मैं स्त्री होते हुए भी जमाने से टक्कर ले रही हूँ और तुम पुरुष होकर घबरा गए। याद रखो, सच्चा प्यार वह है जिसमें त्याग हो - जीवन वह है जो अपने लिए नहीं दूसरों के लिए व्यतीत किया जाए।'

सुंदर ने आज जीवन में पहली बार ऐसी बातें सुनी थीं। अभी तक किसी दृढ़-निश्चय से अपरिचित था। उसने अपने में नई आशा का संचार पाया। दोनों मौन एक-दूसरे को देखते रहे - दोनों एक-दूसरे के दर्द को भांप रहे थे। सुंदर ने होंठों को दबाकर दृढ़ स्वर में कहा-

'मैं प्रयत्न करूँगा किसी के काम आ सकूँ - परंतु फिर भी कभी लड़खड़ाने लगे तो-’

'तो मैं संभाल लूंगी।'

वह चला गया - सराय के बाहर - बिना कुछ कहे सुने - संध्या ने पूछा भी पर उसने कोई उत्तर न दिया - संध्या कुछ घबराई, कहीं वह सदा के लिए ही सराय को छोड़ न गया हो।

रात अधिक हो गई और सब अपने-अपने स्थान पर नींद में खो गए। संध्या की दृष्टि अभी सराय के बाहर वाले द्वार पर लगी थी। नन्हें पाशा सोने के लिए कहकर भीतर चले गए परंतु संध्या ने सुनी-अनसुनी कर दी। जब माँ काम से निबटकर आई तो संध्या बोली-'माँ सुंदर अभी तक वहाँ नहीं आया।'

'सुंदर - तो क्या तू उस आवारा छोकरे के विषय में सोच रही है - पगली! आ जाएगा - नशे में लड़खड़ाता आता ही होगा - उसे क्या होश कि रात कितनी बीती है।' सराय के बाहर घोड़ा गाड़ी रुकने की आवाज आई। माँ कह उठी-'लो मतवाला राजा आ गया - घोड़ा गाड़ी उसी की लगती है।'

सुंदर ने भीतर प्रवेश किया। आज उसके पाँव लड़खड़ा नहीं रहे थे बल्कि सोये हुए साथियों के बीच से धीरे-धीरे संध्या की ओर बड़े जा रहे थे। आज वह बहकता नहीं आ रहा था। स्पष्ट था कि आज उसने पी नहीं।

उसे पूर्ण होश में देखकर माँ-बेटी आश्चर्य से देखती रह गईं। पास जाकर वह उन्हें अपनी ओर देखते बोला-

'आज मैं होश में क्यों हूँ, यही पूछना चाहती हो न - तो सुनो, आज मैंने पी नहीं-'

'सच!' संध्या के होंठों से निकला।

'हाँ - क्योंकि आज मुझ पर कोई और ही नशा सवार था।'

'कैसा नशा?'

'तुम्हारी बातों का नशा - तुम गरीबों के अंधेरे संसार में उजाला लाना चाहती हो न?'

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