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नीलकण्ठ

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :431
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9707
आईएसबीएन :9781613013441

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गुलशन नन्दा का एक और रोमांटिक उपन्यास

संध्या यह कहकर सीढ़ियाँ उतर गई। बेला ने उसे जाते हुए देखा और घृणा से नाक सिकोड़ ली - उसके शब्द उसके मस्तिष्क में गूंज रहे थे - क्या आनंद की याद अभी तक उसके मन में चुटकियां ले रही है - वह क्रोध से दांत पीसते हुए स्वयं ही कहने लगी-'इसे भी जड़ से बाहर निकालना होगा।'

जब पाशा को पता चला कि संध्या रायसाहब से दस हजार का चेक लाई है और यह रुपया वह गरीबों को सुधारने पर लगाना चाहती है तो वह ठहाका मारकर हंसने लगा मानों किसी ने अनहोनी बात कह दी हो।

'पगली, चन्द सिक्के व्यय करके इन लोगों को बदला अवश्य जा सकता है, इनकी जीर्ण दशा को खाने और वस्त्रों से ढंका जा सकता है, किंतु इनके जाग उठने के बाद जानती हो क्या होगा?'

'क्या?'.

'ये लोग जीवन में लंबे साँस लेने लगेंगे - खुले वातावरण में आने से यह संसार का विस्तार नापने की इच्छा करेंगे और इच्छा और कामना के संसार में डूबने लगेंगे - फिर जानती हो ये लोग अपना नाम-मात्र का सुख-चैन भी खो बैठेंगे - रुपये के प्रति उनका मोह बढ़ता जाएगा - रुपया, रुपया, रुपया - जिससे ये अपनी जागृत इच्छाओं की पूर्ति कर सकें।

'आप ठीक कहते हैं - किंतु आपके और मेरे सोचने में बड़ा अंतर है।' 'वह कैसे?'

'मैं उनका शरीर नहीं बल्कि उनकी आत्मा जगाने वाली हूँ।'

नन्हें पाशा मुस्कुराकर चुप हो गया। संध्या के दृढ़ निश्चय से उसे विश्वास था कि वह अवश्य उन लोगों के जीवन में कोई परिवर्तन लाना चाहती है, किंतु वह स्वयं विचारों के सामने झुकना न चाहता था।

सब सरायवासियों को एक स्थान पर एकत्र करके संध्या ने अपना कार्य आरंभ कर दिया। उसने ऐसे आदमी अलग कर दिए जो निश्चय के दृढ़ और काम करने योग्य थे। वृद्ध और बीमार आदमियों को उसने सराय में ही रहने दिया।

नन्हें पाशा सबको संध्या के संकेत पर चलते देखकर मुस्कुरा रहा था। यह संध्या की दृढ़ता थी कि उसने अपनी बातों से सबको एक कर दिया। उसके स्थान पर कोई और व्यक्ति होता तो वह इकट्टे न होते।

उस समय आनंद ने सराय में प्रवेश किया और चुपचाप उसी जमघट के पास आ रुका। जब उसने संध्या को इन गंदे लोगों के साथ बैठे ताश खेलते देखा तो क्रोध से तमतमा उठा। भीड़ से निकलता हुआ वह बिल्कुल संध्या के सामने जा खड़ा हुआ। जब बड़ी देर तक संध्या ने ऊपर न देखा तो वह जोर से चिल्लाया-

'संध्या!'

संध्या किसी को अपना नाम पुकारते सुनकर चौंक उठी, जैसे किसी ने उसके शरीर से बिजली का तार छुआ दिया हो। दृष्टि उठाकर उसने जमघट में खड़े आनंद को देखा और स्थिर रह गई। आनंद ने अंग्रेजी भाषा में कहा कि वह अलग उससे कुछ कहना चाहता है।

'क्या? आप कह सकते हैं-' उसने असावधानी से उत्तर दिया।

'परंतु इनके सामने?'

'यहाँ सब अपने ही हैं-कोई पराया नहीं-कहिए।' उसने एक पत्ता फेंकते हुए कहा।

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