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नीलकण्ठ

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :431
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9707
आईएसबीएन :9781613013441

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गुलशन नन्दा का एक और रोमांटिक उपन्यास

'बेला से मिलने', उसने मुस्कुराते हुए उत्तर दिया और तेज-तेज पांव उठाती ऊपर चली गई।

कमरे का द्वार खोलकर क्षणभर के लिए वह पायदान पर रुक गई और दीवारों को देखने लगी - यहीं वह रहती थी - वहाँ का कुछ भी न बदला था। हर चीज अपने स्थान पर ज्यों-की-त्यों थी - बदले थे तो केवल उसमें बसने वालों के मन जो एक ही दिशा में चलते-चलते अचानक पृथक हो गए थे।

खाली कमरे में घूमती हुई उसकी दृष्टि बाथरूम के किवाड़ पर रुक गई। बेला अभी-अभी भीतर से निकली। दोनों कुछ समय तक चुपचाप एक-दूसरे को देखती रहीं। दोनों के मन में एक तूफान मौजें मार रहा था। आखिर संध्या ने मुस्कुराकर धीमे स्वर में मौन तोड़ते हुए पूछा-

'क्या अभी सोकर उठी हो?'

'हूँ-' उसने असावधानी से सिर हिलाते हुए उत्तर दिया।

'नीचे आते डर लगता था क्या?'

'डर किससे?'.

'शायद सोचती हो दीदी कहीं खा ही न जाए।'

'तो इसमें झूठ ही क्या है - तुम्हारा अधिकार जो चुराया है।'

'ऐसा न कहो - तुमने चुराया नहीं - मैंने उपहार में दिया है।'

'सच दीदी!' बेला ने बनते हुए कहा और संध्या के कुछ और निकट आ गई। संध्या ने पहले तो चाहा कि उसे गले से लगा ले, पर किसी आंतरिक भावना से रुक गई - उसे लगा जैसे बेला अब पराई हो चुकी है। बेला के गाल पर चुटकी लेते हुए वह बोली-'देखना - व्याह पर हमें बुलाना मत भूलना।' बेला ने लज्जा से आँखें झुका लीं। संध्या का यह वाक्य उसके दिल पर नश्तर का-सा घाव कर गया।

'वह कैसे हैं बेला!'

'कौन दीदी!' आश्चर्य से बेला ने पूछा।

'तुम्हारे आनंद बाबू-’ संध्या के स्वर में दृढ़ता थी।

आनंद का नाम संध्या की जुबान से सुनते ही बेला को मानों किसी ने मनों बर्फ में रख दिया हो। क्षण-भर के लिए वह किसी सोच में खो गई और फिर माथे पर बल लाकर बोली-

'अच्छे हैं - तुम्हें पूछते थे-’

'क्या?' उसने उत्साहपूर्वक पूछा।

'यही कि गंदी गलियों से लौटी नहीं अभी?'

'ओह - तो इतना ख्याल है उन्हें मेरा - अच्छा बेला, अब वह आएं तो इतना कह देना उन्हें-’

'क्या?'

'मैं तो कभी उन गलियों से न लौटूंगी परंतु एक दिन वह अवश्य उन गलियों में आ जाएँगे।'

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