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नीलकण्ठ

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :431
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9707
आईएसबीएन :9781613013441

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गुलशन नन्दा का एक और रोमांटिक उपन्यास

'जब तुम्हारा नाम लिखने लगा तो आँखों में आँसू छलक आए।'

'वह क्यों पापा?' वह रायसाहब के समीप कुर्सी पर बैठते हुए बोली। 'भाग्य का चक्कर देखकर - कहाँ की ज्योति और कहाँ जाकर जली।' 'भाग्य ठीक ही करता है पापा - हम इंसान कभी गलत मार्ग पर चलने लगें तो वह अपना लंबा हाथ बढ़ाकर हमें ठीक मार्ग पर डाल देता है।'

'मन बहलाने के लिए यह विचार अच्छे हैं', रायसाहब यह कहते हुए उठे और बोले-'नाश्ता कर लें - तुम्हारी माँ प्रतीक्षा कर रही होगी।'

'परंतु पापा-’ वह कहते-कहते रुक गई।

'हाँ बेटी, कहो क्या कोई बात है?'

'हाँ पापा, एक काम से आई थी।'

'क्या काम?' वह दोबारा बैठते हुए बोले।

'मुझे कुछ रुपयों की आवश्यकता है।' वह धीमे स्वर में आँखें झुकाते हुए बोली।

'बस। कहो कितने चाहिए?' उन्होंने ड्रॉअर से बटुआ निकालते हुए पूछा। इनसे काम नहीं चलेगा।'

'तो तुम्हें अधिक चाहिए?' आश्चर्य से उन्होंने पूछा।

'हाँ पापा, दस हजार ऋण ले रही हूँ - प्रण करती हूँ शीघ्र लौटा दूंगी।' दस हजार का नाम सुनते ही पल भर के लिए रायसाहब सोच में पड़ गए और फिर संभलते हुए बोले-

'दस हजार - इतने का क्या करोगी?'

'जरूरत है - आप मुझ पर विश्वास रखिए। मैं इन्हें किसी व्यापार के लिए ले रही हूँ।'

'ऐसी तो कोई बात नहीं - और फिर ऋण कैसा - कोई बेटियों को भी ऋण देता है - मैं तो स्वयं अपनी बेटी का ऋणी हूँ', उन्होंने ड्राअर से अपनी चेक-बुक निकाली और संध्या के नाम दस हजार का चेक काट डाला।

चेक को सावधानी से लपेटते हुए संध्या ने अपने पर्स में रख लिया और भीगी आँखों से मुस्कुराते हुए रायसाहब का धन्यवाद करने लगी। रायसाहब की आँखों में भी प्रसन्नता के आंसू छलक आए। क्षण-भर चुप रहकर स्नेह से उसकी ओर देखते हुए वह बोले-

'संध्या!'

'जी!' 'बेला और रेनु मेरी दो आँखें हैं परंतु उनकी ज्योति तुम हो-’ यह कहते हुए उन्होंने उसे फिर छाती से लगा लिया और बोले-'हाँ, इस विषय में किसी से कुछ मत कहना और किसी व्यापार की सोचो तो मुझसे पूछ लेना।'

'आपसे पूछे बिना कोई काम न करूँगी।'

इतने में मालकिन भी वहाँ आ पहुँची और संध्या को देखकर अति प्रसन्न हुईं। दोनों संध्या को साथ लेकर नाश्ते के लिए खाने के कमरे में जा बैठे। रायसाहब ने बेला को भी बुलावा भेजा परंतु वह नीचे न आई। शायद लज्जा से वह संध्या के सम्मुख आने से घबराती थी। रेनु स्कूल जा चुकी थी। रायसाहब और मालकिन अभी चाय पी ही रहे थे कि संध्या उठी और सीढ़ियों की ओर बढ़ी।

'कहाँ?' रायसाहब ने मुँह से प्याला हटाते हुए पूछा।

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