ई-पुस्तकें >> नीलकण्ठ नीलकण्ठगुलशन नन्दा
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गुलशन नन्दा का एक और रोमांटिक उपन्यास
नौ
ज्यों-ज्यों रात का अंधेरा बढ़ता गया बाजार की रौनक कम होती गई। लोग दिन की थकावट दूर करने को अपने-अपने बसेरों से जा मिले। बस्ती पर मौन छाने लगा। इस मौन को तोड़ती हुई एक टैक्सी सराय रहमत उल्लाह के द्वार पर रुकी।
संध्या टैक्सी का भाड़ा चुकाकर सराय की ओर हो ली। डरते-डरते उसने भीतर प्रवेश किया।
वह अकेली सराय के भीतर किसी कमरे में जाने से डर रही थी। अभी वह इस उलझन में ही थी कि जाए या न जाए कि खाना बीबी स्वयं आ गई। दोनों एक-दूसरे को मौन दृष्टि से काफी समय तक देखती रहीं, मानों आँखों द्वारा हृदय की गहराईयों में कुछ टटोल रही हों। एकाएक खाना बीबी चिल्ला उठी-
'संध्या मेरी बेटी-’
'हाँ, संध्या, परंतु तुम्हारी बेटी नहीं! मुझे अपनी बेटी मत कहो-’
खाना बीबी ने एक दृष्टि सराय में बैठे लोगों पर डाली और बोली-'भीतर आ जाओ-’
वह खाना बीबी के पीछे-पीछे कमरे के भीतर चली गई। खाना बीबी ने भीतर से किवाड़ बंद कर लिए और कंपित स्वर में बोली-
'तुम यहाँ?'
'तुम्हें देखने चली आई थी - किस आनंद में हो।'
'बेटी - ऐसा न कहो।'
'तुम्हारी बेटी कहलवाने में मुझे लज्जा आती है।'
'यह तुम कह सकती हो - मैं नहीं।'
'तुम क्यों कहने लगीं-जानती हो आज मैं अपना सब कुछ खोकर आई हूं।
'क्या!'
'अपना सब कुछ' वह दोहराते हुए बोली-'जब संसार वाले जान गए कि मैं रायसाहब की नहीं एक नीच वेश्या की लड़की हूँ।'
'संध्या!' खाना चिल्लाई 'निर्धनता से ढंकी इस इज्जत को नीच न समझो-’
'आँखों से देखते चुप क्यों रहूँ - यदि निर्धन ही थीं तो मजदूरी करके पेट पाल लेतीं, किसी मंदिर में जोगिन बन जातीं - यों सराय में बैठे गंदे और आवारा लोगों का मनोरंजन न करतीं-’
'अबोध लड़की!' किसी की भारी और डरावनी आवाज ने उसे चौंका दिया। द्वार में वही एक आंख वाला लंगड़ा खड़ा था जो आँखों में चिंगारियाँ लिए संध्या को देख रहा था। खाना बीबी ने बढ़कर धीरे से परिचय कराते हुए कहा। -
'नन्हें पाशा - यह मेरी लडकी है संध्या-’
'ओह - तो इसीलिए अपनी माँ को वेश्या कह रही है - जी चाहता है इसकी जबान खींच लूँ।'
संध्या यह सुनते ही सटपटा गई। खाना बीबी के मुख पर डर और चिंता स्पष्ट थी जिससे यह जान पड़ता था कि यह काना और लंगड़ा व्यक्ति सराय मंए एक विशेष महत्त्व रखता है। उसने अपने मन को कुछ दृढ़ किया और मुँह फेरकर उसे घृणा से देखते हुए चिल्लाई-
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