ई-पुस्तकें >> नीलकण्ठ नीलकण्ठगुलशन नन्दा
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गुलशन नन्दा का एक और रोमांटिक उपन्यास
'झूठी कहीं की-’ वह स्वयं क्रोध में बड़बड़ाया।
'कौन?' बेला ने पीछे से कंधे पर हाथ रखते हुए पूछा।
'तुम्हारी दीदी - बेला, उसे मैं कितना अच्छा समझता था - न जाने उसे क्या हो गया है?'
'अब जाने दो इन बातों को - जीवन वह है जो नदी के बहाव की भांति किनारों को छोड़ बढ़ता जाता है।'
'किंतु, जब वह ऐसे स्थान पर पहुँचे जहाँ दूर तक कोई किनारा न मिले तो' 'ऐसा नहीं होता - जब संकीर्ण और पथरीले किनारे छोड़ नदी खुले मैदान में आती है तो उसे उनसे कहीं-कहीं अच्छे नर्म और कोमल मिट्टी के किनारे मिलते हैं जिन्हें वह जब भी चाहे काटकर बहती चली जाए।'
उसने बेला की उम्मीद भरी आँखों में झांका और हृदय में भावना के उठते हुए तूफान को शांत करने के लिए उसने बेला को अपनी बाहों में भींच लिया - यह दूसरा किनारा था - नर्म और कोमल।
दोनों के दिलों की धड़कनें एक हो गईं - एक ओर दूर किसी मंदिर में घंटियाँ बज रही थीं और समुद्र में लहरों के टकराने का शोर - दोनों एक बार फिर खो-से गए।
'बेला', आनंद ने दबे स्वर में कहा-'यह वही स्थान है जहाँ एक दिन संध्या ने मुझसे प्रेम निभाने का प्रण किया था।'
'और यह प्रण आज मैं करती हूँ।'
'कहीं यह प्रण भी-’
'ऊँ हूँ-’ बेला ने आनंद का मुँह अपनी हथेली से बंद करते हुए कहा-'ऐसा मत कहिए।'
'कितना अंतर है तुम दोनों में - मैंने कितना गलत समझा था तुम्हें।'
'अब छोड़िए बीती बातें- और चलिए घर रात हो गई-’
आनंद ने बेला का हाथ पकड़ा और उसे कार तक सहारा दिए ले गया। बेला मन ही मन अपनी सफलता पर प्रसन्न थी।
घर लौटकर जब उसने बैठक में पांव रखा तो क्षण-भर के लिए वह चौंककर ठिठक-सा गया। सामने सोफे पर निशा बैठी हुई उसकी प्रतीक्षा कर रही थी। अपनी घबराहट पर अधिकार पाते हुए उसने पूछा-
'निशा - तुम यहाँ - इस समय-’
'जी - काफी समय से आपकी प्रतीक्षा कर रही हूँ।'
'कहो-’ उसने असावधानी से अपना कोट उतारते हुए पूछा।
'आज्ञा हो तो कुछ कह लूँ-’
'तुम्हारी सहेली ने कुछ छोड़ा हो तो उसे पूरा कर लो।'
'आपने ठीक समझा - दोनों की अधूरी बातों को मैं पूरा करने आई हूँ। क्या यह ठीक नहीं कि बेला को आप एक दिन चुपके से खंडाला ले गए थे?' 'मैं समझा नहीं।'
खंडाला का नाम सुनते ही आनंद के पांव तले की धरती खिसक गई और उसका मुख सफेद पड़ गया। वह निशा की ओर देखता-सा रह गया।
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