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नीलकण्ठ

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :431
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9707
आईएसबीएन :9781613013441

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गुलशन नन्दा का एक और रोमांटिक उपन्यास

'खंडाला?' फूले हुए साँस से उसने कहा।

'आप ही कहिए क्या यह झूठ है?'

'यह तुमसे कहा किसने?' उसने अपनी घबराहट पर काबू पाते हुए कहा। 'आपके मन ने, आपकी भटकती आँखों ने, बेला के उमड़ते यौवन और सौंदर्य ने।'

'यह सब झूठ है।'

'परंतु ये तस्वीरें कभी झूठ नहीं कह सकतीं जो आपके रोमांस की जीवित झलकियां हैं।'

निशा की बात ने आनंद पर मानों घड़ों पानी डाल दिया। वह झूठ को कब तक छिपा सकता था और उसने इस चोरी को स्वीकार कर लिया।

जब उसे यह पता चला कि ये बातें बेला ने ही संध्या से कही हैं तो वह क्रोध में जल-भुन गया। 'तो यह सब आग उसी की लगाई हुई है', वह घृणा से दांत पीसने लगा। वह सोचने लगा जो बातें उसने संध्या के विरुद्ध उससे कहीं थीं, शायद वे भी सब असत्य हों और यह सब उसने उसे चले जाने के लिए कह डाली हों।

'अब आप ही बताइए, यह सब जानकर संध्या की क्या दशा हुई होगी, आखिर वह स्त्री है।'

'मैं बहुत लज्जित हूँ निशा - यह अच्छा ही हुआ जो तुमने सब मुझे बता दिया।'

'यही बार-बार मैंने संध्या से कहा, पर वह मन-ही-मन जलती रही-और उससे चोरी छिपे मुझे यहाँ आकर आपको सूचित करना पड़ा।'

'तुमने अच्छा किया।'

'अब क्या होगा?'

'सब ठीक होगा - जाओ मेरी ओर से संध्या से कहना कि मुझे क्षमा कर दे - और हाँ, तुम दोनों कल सवेरे ही घर आ जाना - रायसाहब के सामने इस बात का निर्णय हो जाएगा।'

'किस बात का?'

'कि मैं संध्या से शीघ्र विवाह करना चाहता हूँ।'

आनंद की ये बातें सुनते ही निशा प्रसन्न हो गई - उसका यहाँ आना सफल हो गया। वह शीघ्र यह सूचना संध्या को देने के लिए बाहर निकल गई।

आनंद बेला की चाल के विषय में रात-भर सोचता रहा। इसी चिंता में वह सो न सका - खंडाला के दृश्य उसकी आंखों के सामने आ-आकर भयानक रूप धारण करते रहे। किसी अज्ञात भय से वह कांप उठता। कहीं बेला उसकी निर्बलता का अनुचित लाभ न उठा ले और वह उसकी दृष्टि में गिर जाए। उसका शरीर पसीने से तर हुआ जा रहा था।

सवेरा होते ही वह सीधा रायसाहब के यहाँ पहुँचा। आज वह अपना निर्णय कर ही देना चाहता था।

वहाँ रायसाहब और मालकिन चिंता में खोए गोल कमरे में बैठे थे। संध्या बाल्कनी की सीढ़ियों पर सिर झुकाए बैठी थी। कुछ देर तक तीनों में से किसी ने आनंद को न देखा। हर ओर चुप्पी-सी थी।

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