ई-पुस्तकें >> नीलकण्ठ नीलकण्ठगुलशन नन्दा
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गुलशन नन्दा का एक और रोमांटिक उपन्यास
'निशा के यहाँ से सब पता चल जाएगा।' बेला ने चिंतित मन से उत्तर दिया।
निशा के घर पहुँचने पर उन्हें यह जानकर सांत्वना हुई कि संध्या अभी तक वहीं है। आनंद चुपके से उसके समीप जा पहुँचा जो उस समय कोई पत्रिका देखने में तल्लीन थी। आनंद के पाँवों की आहट पाकर उस ओर मुड़ी। 'कोई सफाई देने आए हैं आप अब-’
'हाँ, यही कहने आया हूँ कि मेरा बेला का कोई ऐसा संबंध नहीं जो तुम हर समय जली-भुनी रहती हो।'
'यह आपसे किसने कहा कि मैं आपसे जली-भुनी रहती हूँ।'
'तुम्हारी संदेह भरी दृष्टि ने जिसको पढ़ने में मैंने भूल नहीं की।'
'और यदि आपकी बहकी आँखों में मैंने कुछ देखा हो तो'
'क्या?'
'कि आप चोरी छिपे बेला से प्यार करते हैं।'
'संध्या-’ वह चिल्लाया।
'आप मुझे तो धोखा दे चुके - अब उसका जीवन नष्ट न कीजिएगा।' 'तुम मुझे इतना गिरा हुआ समझती हो, यह मैं आज जान पाया। शायद तुम मेरे मन की दशा न जान सकोगी - मैं तो अपनी मान-मर्यादा का विचार न करते हुए तुम्हें उन गलियों से लेने जा रहा था जहाँ भले आदमी पाँव तक नहीं रखते।'
'रहने दीजिए अपनी भलमनसी को और कृपया चले जाइए यहाँ से।' 'मैं जानता हूँ संध्या, परंतु किसी दिन तुम अवश्य पछताओगी। मैं यह न जानता था कि 'नीलकंठ' के पवित्र प्रेमी की देवी इतनी गिरी हुई है, पर तुम्हारा क्या दोष - आखिर हो किसकी बेटी-’
संध्या यह सुनते ही बौखला उठी। इससे पूर्व कि वह इसका कोई उचित उत्तर दे पाती, आनंद नीलकंठ वाला हार फर्श पर पटक तेजी से बाहर निकल गया।
बेला सड़क पर गाड़ी में बैठी बेचैनी से आनंद के लौटने की प्रतीक्षा कर रही थी।
आनंद क्रोध में भर्राया हुआ आया और सीट पर बैठकर कार को स्टार्ट करने के लिए चाबी निकालने लगा। बेला झट से अपनी सीट पर आ गई और सहानुभूति जताने के लिए उसके माथे से स्वेद बिंदु साफ करने लगी। कुछ समय चुप रहने के बाद बेला ने झिझकते हुए प्रश्न किया-'क्यों कुछ पता चला?'
'वह यहीं थी।' क्रोध में उत्तर देते हुए आनंद ने गाड़ी चला दी।
'क्या कहती थी?' बेला ने नम्रता से पूछा।
'बंद करो यह बकवास - मैं उसके विषय में कुछ नहीं सुनना चाहता।' उसने गाड़ी की गति और तेज कर दी। बेला उसके इस कठिन उत्तर और गाड़ी की तीव्र गति से उसके मन में बढ़ते हुए तूफान का अनुमान लगा रही थी। उसे इस अवसर को हाथ से जाने नहीं देना चाहिए।
वह सारी बातें सोच रही थी कि गाड़ी शहर से बाहर निकलकर समुद्र-तट पर जा पहुँची।
यह वह स्थान था जहाँ एक सांझ संध्या और उसने मिलकर अपने प्रेम को नीलकंठ का नाम दिया था और सदा एक-दूसरे के ही रहने का प्रण किया। वहाँ पहुँचकर उसने उछलती हुई लहरों को देखा जो डूबते हुए सूर्य को अंतिम प्रणाम करने को बार-बार उठ रही थीं।
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