ई-पुस्तकें >> नीलकण्ठ नीलकण्ठगुलशन नन्दा
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गुलशन नन्दा का एक और रोमांटिक उपन्यास
आठ
शाम के छह बजने को थे। बेला शाम की मेज पर अकेली बैठी उन प्यालों को देख रही थी जो रायसाहब और मालकिन के लिए सजाए गए थे परंतु आज उन्होंने चाय न पी थी। वर्षों से शाम की चाय संध्या के हाथों से पिया करते थे। आज उसकी अनुपस्थिति में चाय न पी सके। उन्हें विश्वास था कि उनकी बेटी बोझ हल्का हो जाने के पश्चात् स्वयं लौट आएगी। वह स्वप्न में भी न सोच सकते थे कि इसकी तह में बेला का हाथ है जो दोनों ओर एक समान आग लगा रही थी।
चाय का प्याला होंठों से लगाते बेला सोच रही थी कि कहीं आनंद ने उसका हाथ न पकड़ा तो उसका क्या होगा। एकाएक आनंद के स्वर ने उसके विचारों का तांता तोड़ दिया।
'हैलो बेला - वे सब कहा हैं?'
'पापा और मम्मी अभी पड़ोस में गए हैं।'
'और संध्या-’
बेला ने कोई उत्तर न दिया और आनंद के मुख की ओर देखने लगी। आनंद ने एक कुर्सी खींची और बैठते हुए पूछा-'चुप क्यों हो गईं।'
'दीदी चली गईं।' 'कहाँ?' वह चौंकते हुए बोला।
'अपनी माँ के पास - बेला ने संध्या का दिया हुआ हार निकालकर उसके सामने रखते हुए कहा।
'और यह हार?'
'मुझे सौंप गईं। कहतीं थीं कि आनंद बाबू आएँ तो उन्हें लौटा देना।' 'वह क्यों?'
'कहती थीं, मैं तुम दोनों के मार्ग में नहीं आना चाहती, मेरा मार्ग अलग और उसका अलग है।'
'परंतु इतनी बड़ी भूल उससे हुई क्यों कर?'
'मैं क्या जानूँ, शायद अपनी वास्तविकता जानकर अपने-आप से लज्जित है।' 'संभव है-’
'इसीलिए जब मैंने कहा, दीदी अपनी माँ के यहाँ अभी न जाओ। आनंद बाबू क्या सोचेंगे तुम्हारी वास्तविकता को जानकर... '
'तो क्या बोली वह?' आनंद ने पूछा।
'कहने लगी - मैं जैसे भी हूँ तुम्हारे आनंद बाबू से बहुत अच्छी हूँ - किसी को मीठी छुरी बनकर नहीं काटती।'
'ओह!' आनंद दांत पीसकर चुप हो गया और चाय का प्याला शीघ्रता से पीकर बाहर जाने लगा। बेला ने पूछा-'कहाँ चल दिए?'
'संध्या के पास।'
'ठहरो - मैं भी चलती हूँ तुम्हारे संग।'
आनंद ने कोई उत्तर न दिया और तेज पग उठाता बाहर सड़क पर आ पहुँचा। बेला भी तुरंत उसके साथ आकर चुपके से गाड़ी की पिछली सीट पर आ बैठी।
'वह 'कहाँ है, क्योंकर पता चलेगा उसका?'
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