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नीलकण्ठ

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :431
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9707
आईएसबीएन :9781613013441

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गुलशन नन्दा का एक और रोमांटिक उपन्यास

'हाँ दीदी - मैंने अपना सब कुछ लुटा दिया, दीदी मैं बिल्कुल निर्दोष हूँ। मेरी अच्छी दीदी मुझे क्षमा कर दो।' वह घुटनों के बल वहीं बैठ गई और संध्या के दहकते हुए सीने से लिपटकर रोने लगी - चंद क्षणों के लिए उसे अनुभव हुआ मानों उसने अपना सिर अंगारों पर रख दिया हो।

संध्या यह सुनकर पागल सी हो गई जैसे किसी ने बाण मारकर एक ही निशाने में उसका दिल बेध डाला हो। वह बेला से कहे भी तो क्या - उसकी बातों ने उसे प्रेम और ईर्ष्या की उस पतली धार पर ला खड़ा किया, जहाँ वह कहीं की न रही। वह बेला को सांत्वना देती हुई बोली-

'पगली रो मत - अच्छा किया जो तूने मन की दशा मुझसे कह डाली। तब ही, जब से वह खंडाला से लौटा है कुछ खोया-खोया रहता है। यदि वह भी अपने मन की बात मुझसे कह देता तो मैं तुम दोनों के जीवन की प्रसन्नता के सब कुछ त्याग देती।'

'नहीं दीदी - ऐसा न कहो - दोष तो सब मेरा था। मैं स्वयं ही अंधी हो गई थी, दंड मुझे ही मिलना चाहिए। पापा से कहकर मुझे दिल्ली वापस भेज दो - मैं बंबई एक दिन भी रहना नहीं चाहती।'

'पागल मत बनो - मझधार में आकर चप्पू छोड़ दिया तो सब डूब जाएँगे- धैर्य रखो आनंद तुम्हारा ही रहेगा।' यह कहते हुए दो आँसू मोतियों की भांति उसकी आँखों की कोरों में आ ठहरे। वह धीमे स्वर में बोली-'क्या वह यहाँ आए थे?'

'हाँ दीदी - रात को पापा से बहुत देर तक बातें करते रहे।'

'तुमसे नहीं मिले?'

'केवल जाते समय इतना ही कहा-' बेला, तुम्हें धीरज से काम लेना चाहिए - यदि विवाह हुआ तो तुम्हीं से होगा - मैं न जानता था कि तुम्हारी दीदी किसी वेश्या की लड़की हैं।'

'वेश्या!' जैसे नींद में वह चिल्ला उठी हो-' बेला वह सच कहते हैं। अब तक तो मैं उसकी न थी, अब उसी वेश्या की होकर रहूँगी-कह देना उससे - और यह भी कह देना कि मेरी माँ तो जैसी भी है परंतु तुमसे अच्छी है। यह कहते हुए उसने गले से अपना हार उतारा और उस पर खुदे नीलकंठ को देखने लगी, फिर उसे बेला के हाथ में देते हुए बोली-

'संभालकर रखना, कहीं मेरी भांति इसे खो न देना - पक्षी जो ठहरा-किसी समय हाथों से निकलकर उड़ सकता है।' यह कहकर वह लंबे डग भरती हुई बाहर चली गई। बेला यह भी न पूछ सकी कि वह कहाँ जा रही है। संध्या के चले जाने के पश्चात् बेला ने वह हार अपनी मुट्ठी में ले लिया और स्वयं ही कहने लगी-'संध्या कहती है कि पक्षी किसी समय भी उड़ सकता है परंतु वह नहीं जानती कि वह अब बेला के हाथ में है जो उसके पंख काटकर रख देगी।'

थोड़े समय पश्चात् घर में शोर उठा कि न जाने अचानक संध्या कहाँ चली गई। नौकर, मालकिन, रेनु यहाँ तक कि बेला मौन रही। कोई पापा को न बता सका कि उनकी लाडली अचानक कहाँ चली गई।

केवल बेला अपने मन में गुदगुदी का आनंद ले रही थी।

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