ई-पुस्तकें >> नीलकण्ठ नीलकण्ठगुलशन नन्दा
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गुलशन नन्दा का एक और रोमांटिक उपन्यास
बेला ने आँसुओं से भीगा चेहरा ऊपर उठाया और कहा-'दीदी!' यह कहकर उसकी गोद में सिर छिपा सिसकियाँ लेकर रोने लगी। संध्या ने प्यार से उसके बिखरे बालों को संवारना आरंभ कर दिया। वैसे ही सिर नीचे किए वह कहने लगी-
'दीदी-दीदी, कहाँ चली गईं थीं। रात भर मैं चिंता में व्याकुल रही। दीदी मुझे क्षमा कर दो - मैं तुम्हारी छोटी बहन हूँ - मेरी जीभ क्यों न जल गई जब-’
'अब छोड़ो इन बातों को - देखो तो मैं तुम्हारे पास आ गई - उठो मैं तुम्हारे सुंदर केश संवार दूँ।' बेला ने धीरे से गर्दन उठाकर ऊपर देखा। संध्या फिर कहने लगी-'देखो, ये रोती हुई आँखें इस सुंदर मुखड़े पर शोभा नहीं देतीं। तुम्हारे ये दिन रोने के नहीं हँसने के हैं।'
'यह यौवन - यह सौंदर्य - ये दिन न ही आते तो अच्छा था।'
आंसू पोंछते हुए वह बोली-
'ऐसा नहीं कहा करते। यौवन तो जीवन की वासना है।'
'परंतु बाग में चोर और लुटेरे छिपे बैठे हों तो-’
'यह आज क्या बहकी-बहकी बातें कर रही हो - कौन चोर है? कौन तुम्हें छूने तक का भी साहस रखता है?'
'दीदी-तुम्हारा '
'हाँ, हाँ, कहो - रुक क्यों गई?'
'तुम्हारा आनंद-’
आनंद का नाम होंठों पर आते ही वह सिर से पांव तक कांप गई जैसे किसी ने अचानक दबी राख में से अंगार कुरेदने आरंभ कर दिए हों। उसने मन को अधिकार में करते हुए पूछा-
'क्या कहते थे वह?'
'दीदी पहले वचन दो कि उनसे कुछ न कहोगी।'
'हाँ-हाँ-हाँ तुम घबराओ नहीं - आखिर मैं भी तो सुनूँ कि क्या किया उन्होंने।'
'मुझसे झूठा प्रेम... मुझे कहीं का न रखा।'
'वह कैसे? तुम रुक-रुककर क्यों कहती हो - मुझमें इतना धैर्य नहीं - वह सब कह डालो।'
बेला ने तकिए के नीचे से सब तस्वीरें निकालकर उसके हाथ में दे दीं जो उसने आनंद के संग खंडाला में उतारी थीं। संध्या उन्हें देखते ही अवाक्-सी कभी उन तस्वीरों को और कभी बेला के चिंतित मुख को देखने लगती। थोड़ी देर दोनों एक-दूसरे को ऐसे ही देखती रहीं, फिर बेला बोली-
'हाँ दीदी - यह खंडाला है।'
'परंतु तुम वहाँ कब गई?'
पूना जाते समय-मैं क्या जानूँ वह भी दादर से उसी गाड़ी में जा बैठे। हँसते-खेलते उन्होंने मुझे पागल सा कर दिया और मेरे ना करने पर भी मुझे एक दिन के लिए खंडाला में उतारकर ठहरने- के लिए विवश कर दिया और क्षणिक भावनाओं के आवेश में मैंने अपना सब कुछ लुटा दिया।
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