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नीलकण्ठ

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :431
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9707
आईएसबीएन :9781613013441

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गुलशन नन्दा का एक और रोमांटिक उपन्यास

यह कहते हुए उसने अपना सिर आनंद के सीने पर रख दिया और रोने लगी। खंडाला के शब्द ने आनंद के मस्तिष्क में हलचल-सी उत्पन्न कर दी। वह उलझन में पड़ गया - संध्या और बेला - बेला और संध्या और दोनों में वह स्वयं - क्या करे क्या न करे-? इन्हीं विचारों में गुमसुम कितने ही समय तक वह मूर्तिवत बैठा रहा। बेला कुछ सोचकर गाड़ी का द्वार खोलकर बाहर जाने लगी तो आनंद ने उसकी बांह पकड़ते हुए पूछा-'जा रही हो?'

'जी।'

'कहाँ?'

'अपने दुर्भाग्य पर रोने - आप जाइए। मैं भविष्य में कभी आप दोनों के मार्ग में न आऊँगी।' उसने गंभीर स्वर में आँसू पोंछते हुए कहा।

'पगली मत बनो - शायद मैं अपना निश्चय ही बदल दूँ।'

'सच!' वह प्रसन्नता से बोली।

'हाँ बेला - परंतु ठीक प्रकार सोच-विचार के - वचन दो कि तब तक अपने मन की बात किसी से न कहोगी।'

'वचन देती हूँ' बेला ने अपना हाथ उसके हाथ में देते हुए कहा-'एक वचन आपको भी मुझे देना होगा।'

'क्या?'

'यह कोई जान न पाए कि ये सब बातें मैंने आपसे कही हैं।'

'घबराओ नहीं - मैं किसी से कुछ न कहूँगा।'

बेला चली गई, पर आनंद के मन में एक आग सी लग गई जिसने उसके मन और मस्तिष्क को अपनी लपेट में ले लिया। उसे बेला की बातों पर विश्वास आ गया। बेला ने हर बात इस ढंग से कही कि उसमें किसी प्रकार की शंका का स्थान न रह जाए। आनंद को रायसाहब पर क्रोध भी आ रहा था जिन्होंने भेद उससे इसलिए छिपाए रखा कि कहीं वह संध्या से विवाह करने को मना न कर दे। इन्हीं विचारों में उसने कार स्टार्ट कर दी और गाड़ी को तेज गति पर छोड़ दिया।

दूसरे दिन पौ फटने से पूर्व निशा की गाड़ी में बैठकर संध्या घर लौट गई। रायसाहब और मालकिन ने उसे गले से लगा लिया। वे जानते थे कि अधिक समय तक वह उनसे अलग नहीं रह सकती। उसकी माँ के विषय में उन्होंने कोई प्रश्न नहीं किया।

बाल्कनी से झांककर जब बेला ने उसे पापा और मम्मी के साथ बैठे चाय पीते देखा तो जल-भुन गई। वह फिर उनके यहाँ क्यों लौट आई। आनंद चाहे उसकी बातों में आ गया हो पर संभव है कि संध्या के सम्मुख वह फिर पिघल जाए। संध्या की बातों में वह रस था जो पत्थर हृदय को भी मोम कर दे। उसे सहसा एक चाल सूझी। एक ही ओर पासा फेंकने से कुछ न बनेगा। उसे दोनों के मन में एक समान आग सुलगानी चाहिए ताकि जब वह भड़क उठे तो बुझाने वाला निकट न आ सके। वह द्वेष और डाह से दांत पीसने लगी। बाहर बाल्कनी की सीढ़ियों पर आहट हुई और वह झट से अपने बिस्तर पर उल्टी लेट गई। न जाने उस समय उसकी आँखों से आँसू कैसे छलक पड़े और वह तकिए में मुँह छिपाकर रोने लगी। संध्या दबे पाँव कमरे में आई और उसके पास बैठ गई। थोड़ी देर चुप रहने के पश्चात् अपनी सुकुमार उंगलियां उसकी पीठ पर फेरते हुए बोली-'बेला-बेला-सवेरा हो गई।'

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